शुक्रवार, 13 अक्तूबर 2023

मोबाइल (दूरभाष) का पूरा नाम क्या है Full Form Of Mobile (Phone)

 -शीतांशु कुमार सहाय 

    मोबाइल की फुल फॉर्म "मॉडिफाइड ऑपरेशन बाइट इंटिग्रेशन लिमिटेड एनर्जी" (Modified Operation Byte Integration Limited Energy) है। जी हाँ, इतना लम्बा नाम ही है उस डिवाइस का जो आप के हाथ में रहती है।

गुरुवार, 5 अक्तूबर 2023

अकिलीज़ का योग में महत्त्वपूर्ण भूमिका Important Role Of Achillies In Yoga

 


-शीतांशु कुमार सहाय
 

      बायीं एँड़ी के ऊपर एक स्थान पर 'अकिलीज़' (Achilles) होता है। इस का पूरा नाम अकिलीज़ टेण्डन (Achilles tendon) है। इस पर दबाव बनाने से मस्तिष्क शान्त होता है। इस का स्पर्श यदि मूलाधार से हो तो अपूर्व लाभ होता है। इसलिए योगी बैठते समय पहले बायाँ पैर मोड़कर एँड़ी को गुदामार्ग पर लगाते हैं तो अकिलीज़ स्वतः मूलाधार से स्पर्श होने लगता है। इस के उपरान्त दायाँ पैर मोड़ते हैं।  

     हालाँकि दोनों पैरों की एँड़ियों के ऊपर अकिलीज़ होता है लेकिन बायीं अकिलीज़ का योग में महत्त्वपूर्ण भूमिका है।  

      Achilles tendon ऊत्तकों का मजबूत जोड़ है जो पिण्डली की मांसपेशियों को एँड़ी की हड्डियों से जोड़ता है। जब यह जोड़ टूट जाता है या फट जाता है, तो इसे Achilles tendon टूटना के रूप में जाना जाता है। यह घटना अधिकतर खिलाड़ियों, जिम में अधिक व्यायाम करनेवालों, अधिक दौड़ने से या तेज गति से यहाँ-वहाँ भागकर कार्य करनेवालों के साथ घटती है। 

      नियमित योग करने से अकिलीज़ टेण्डन के टूटने या फटने की घटना नहीं होती। सामान्य विज्ञान या चिकित्सा विज्ञान से बहुत ऊपर का विज्ञान है योग। आप भी ऊपर बताये गये स्थिति में बैठकर लाभ प्राप्त कर सकते हैं। 


बुधवार, 20 सितंबर 2023

पितृपक्ष : श्राद्ध का है धर्म में वैज्ञानिक महत्त्व Scientific Reason Of Sharadh In Sanatan Dharma

 


-शीतांशु कुमार सहाय 

      मैं ने यह आलेख फेसबुक के एक मित्र से साभार लिया है। कुछ संशोधन के साथ यहाँ प्रस्तुत किया गया है..... 

      एक व्यक्ति को नदी में तर्पण करते देख एक फकीर अपनी बाल्टी से जल गिराकर जाप करने लगा कि घर पर स्थित उस की प्यासी गाय को जल मिले। श्राद्ध कर रहे व्यक्ति द्वारा पूछने पर उस फकीर ने कहा, "जब आप के चढाये जल और भोग आप के पुरखों को मिल जाते हैं तो मेरी गाय को भी मिल जायेगा। इस कारण श्राद्ध कर रहा व्यक्ति बहुत लज्जित हुआ।

      यह मनगढ़न्त कहानी सुनाकर मेरा अभियन्ता मित्र ठठाकर हँसने लगा और मुझ से बोला, "सब पाखण्ड है जी!"

      अधिकतर मित्र मुझ से ऐसी बकवास करने से पहले ज़्यादा सोच-समझकर ही बोलते हैं; क्योंकि, पहले मैं सामनेवाले की पूरी बात सुन लेता हूँ उस के बाद ही प्रत्युत्तर देता हूँ।

      मै ने कुछ नहीं कहा। मैं ने मेज पर से कैलकुलेटर उठाकर एक नम्बर डायल किया और अपने कान से लगा लिया। बात न हो सकी तो मैं ने अभियन्ता मित्र की तरफ देखकर कहा कि पता नहीं टेलीफोन कम्पनी वाले कैसे निकम्मे अभियन्ता को रखते हैं जो नेटवर्क भी सही नहीं रख सकता। 

      मेरी बात सुनकर अभियन्ता मित्र भड़क गये और बोले, "ये क्या मज़ाक है! 'कैलकुलेटर' में मोबाइल का फंक्शन कैसे काम करेगा?"

      तब मैंने कहा, "तुम ने सही कहा। वही तो मैं भी कह रहा हूँ कि स्थूल शरीर छोड़ चुके लोग के लिए बनी व्यवस्था जीवित प्राणियों पर कैसे लागू होगी!?"

      इस पर इञ्जीनियर साहब अपनी झेंप मिटाते हुए कहने लगे, "ये सब पाखण्ड है। अगर यह सच है तो इसे सिद्ध कर दिखाओ।"

      अब मैं थोड़ा सन्दर्भ बदला। "तुम यह बताओ कि न्युक्लीयर पर न्युट्रान के प्रहार या टकराव से क्या ऊर्जा निकलती है?"

      "बिल्कुल! इट्स काॅल्ड एटॉमिक एनर्जी।"

      फिर, मै ने उन्हें एक चॉक और पेपरवेट देकर कहा, "अब आप के हाथ में बहुत सारे न्युक्लीयर्स भी हैं और न्युट्रांस भी। अब तुम इन में से ऊर्जा निकालकर दिखाओ।"

      मेरा मित्र समझ गया और तनिक लजा भी गया। वह बोला, ऐसा है कि एक काम याद आ गया। बाद में बात करते हैं।"

      कहने का मतलब यह है कि यदि, हम किसी विषय या तथ्य को प्रत्यक्षतः भौतिक रूप से सिद्ध नहीं कर सकते तो इस का एक महत्त्वपूर्ण अर्थ यह भी है कि हमारे पास समुचित ज्ञान, संसाधन वा अनुकूल परिस्थितियाँ नहीं हैं। इस का तात्पर्य यह कतई नहीं कि वह तथ्य ही गलत है। वास्तव में हवा में तो हाइड्रोजन और ऑक्सीजन दोनों मौजूद है, फिर हवा से ही जल क्यों नहीं बना लेते!

      अब आप हवा से जल नहीं बना रहे हैं तो इस का मतलब यह थोड़े ना घोषित कर दोगे कि हवा में हाइड्रोजन और ऑक्सीजन ही नहीं है.

हमारे द्वारा श्रद्धा से किए गए सभी कर्म दान आदि आध्यात्मिक ऊर्जा के रूप में हमारे पितरों तक अवश्य पहुँचते हैं.

इसीलिए, व्यर्थ के कुतर्को मे फँसकर अपने धर्म व संस्कार के प्रति कुण्ठा न पालें...!

और हाँ...

जहाँ तक रह गई वैज्ञानिकता की बात तो....

क्या आपने किसी भी दिन पीपल और बरगद के पौधे लगाए हैं...या, किसी को लगाते हुए देखा है?

क्या फिर पीपल या बरगद के बीज मिलते हैं ?

इस का जवाब है नहीं....

ऐसा इसीलिए है क्योंकि... बरगद या पीपल की कलम जितनी चाहे उतनी रोपने की कोशिश करो परंतु वह नहीं लगेगी.

इसका कारण यह है कि प्रकृति ने यह दोनों उपयोगी वृक्षों को लगाने के लिए अलग ही व्यवस्था कर रखी है.

जब कौए इन दोनों वृक्षों के फल को खाते हैं तो उनके पेट में ही बीज की प्रोसेसिंग होती है और तब जाकर बीज उगने लायक होते हैं.

उसके पश्चात कौवे जहां-जहां बीट करते हैं, वहां वहां पर यह दोनों वृक्ष उगते हैं.

और... किसी को भी बताने की आवश्यकता नहीं है कि पीपल जगत का एकमात्र ऐसा वृक्ष है जो round-the-clock ऑक्सीजन (O2) देता है और वहीं बरगद के औषधि गुण अपरम्पार है.

साथ ही आप में से बहुत लोगों को यह मालूम ही होगा कि मादा कौआ भादो महीने में अंडा देती है और नवजात बच्चा पैदा होता है.

तो, इस नयी पीढ़ी के उपयोगी पक्षी को पौष्टिक और भरपूर आहार मिलना जरूरी है...

शायद, इसलिए ऋषि मुनियों ने कौवों के नवजात बच्चों के लिए हर छत पर श्राघ्द के रूप मे पौष्टिक आहार की व्यवस्था कर दी होगी.

जिससे कि कौवों की नई जनरेशन का पालन पोषण हो जाये......

इसीलिए....  श्राघ्द का तर्पण करना न सिर्फ हमारी आस्था का विषय है बल्कि यह प्रकृति के रक्षण के लिए नितांत आवश्यक है.

साथ ही... जब आप पीपल के पेड़ को देखोगे तो अपने पूर्वज तो याद आएंगे ही क्योंकि उन्होंने श्राद्ध दिया था इसीलिए यह दोनों उपयोगी पेड़ हम देख रहे हैं.

अतः.... सनातन धर्म और उसकी परंपराओं पे उंगली उठाने वालों से इतना ही कहना है कि.... 

जब दुनिया में तुम्हारे ईसा-मूसा-भूसा आदि का नामोनिशान नहीं था...

उस समय भी हमारे ऋषि मुनियों को मालूम था कि धरती गोल है और हमारे सौरमंडल में 9 ग्रह हैं.

साथ ही... हमें ये भी पता था कि किस बीमारी का इलाज क्या है...

कौन सी चीज खाने लायक है और कौन सी नहीं...?

भारत की स्वतंत्रता के बाद सात दशक तक धर्म से जुड़ी ऐसी वैज्ञानिक बातों को अंधविश्वास और पाखंड साबित करने का काम हुआ है। अब धीरे-धीरे सनातन संस्कृति पुनर्जीवित हो रही है। लोग मूल ग्रन्थ न पढ़कर सुनी हुई बातों पर विश्वास करते थे।

शनिवार, 29 जुलाई 2023

जीवन को आनन्दमय बनाइये Make Life Fun

-शीतांशु कुमार सहाय 

      छोटी-छोटी बातों पर ध्यान दें और जीवन को सहज, सरल और आनन्दपूर्ण बनाएँ। बहस, तकरार, क्रोध, दमन, शोषण, ईर्ष्या, धोखेबाजी और लालच से क्षणिक लाभ मिलता हुआ दीख सकता है लेकिन शान्ति, प्रसन्नता या आनन्द की प्राप्ति नहीं हो सकती।

      अब से १५० साल बाद, आज इस आलेख को पढ़नेवाले हम में से कोई भी जीवित नहीं रहेगा। अभी हम जिस चीज पर लड़ रहे हैं उस का ७० प्रतिशत से १०० प्रतिशत पूरी तरह से भुला दिया जायेगा। शब्द को पूरी तरह से रेखांकित करें।

      अगर हम अपने से १५० साल पहले की स्मृतियों में जाएँ, तो वह सन् १८७३ ईस्वी होगी। उस समय दुनिया को अपने सिर पर उठानेवालों में से कोई भी आज जीवित नहीं है। इसे पढ़ने वाले हम में से लगभग सभी को उस युग के किसी भी व्यक्ति के चेहरे की कल्पना करना मुश्किल होगा।

      थोड़ी देर रूकें और कल्पना करें कि कैसे उन में से कुछ ने अपने रिश्तेदारों को धोखा दिया और दर्पण के एक टुकड़े के लिए उन्हें दास के रूप में बेच दिया। कुछ लोग ने ज़मीन के एक टुकड़े या रतालू या कौड़ियों के कन्द या एक चुटकी नमक के लिए परिवार के सदस्यों को मार डाला। वह रतालू, कौड़ी, दर्पण या नमक कहाँ है जिस का उपयोग वे डींगें हाँकने के लिए कर रहे थे? यह अब हमें अजीब लग सकता है लेकिन हम मनुष्य कभी-कभी कितने मूर्ख होते हैं, ख़ासकर जब बात पैसे, ताकत या प्रासंगिक बनने की कोशिश की आती है!

      जब आप दावा करते हैं कि इण्टरनेट युग आप की स्मरण-शक्ति को सुरक्षित रखेगा, उदाहरण के तौर पर माइकल जैक्सन को लें। आज से ठीक १४ साल पहले २००९ में माइकल जैक्सन की मौत हो गयी। कल्पना कीजिये कि जब माइकल जैक्सन जीवित थे तो उन का पूरी दुनिया पर कितना प्रभाव था। आज के कितने युवा उन्हें विस्मय के साथ याद करते हैं! यानी क्या वे उन्हें जानते भी हैं? आने वाले १५० वर्षों में, जब भी उन के नाम का उल्लेख किया जायेगा, बहुत से लोग के लिए हृदय में कोई घण्टी नहीं बजेगी।       आइये, जीवन को आसान बनाएँ। इस दुनिया से कोई भी जीवित नहीं जायेगा। जिस भूमि के लिए आप लड़ रहे हैं और मरने-मारने को तैयार हैं, उस भूमि को किसी ने छोड़ दिया है, वह व्यक्ति मर चुका है, सड़ चुका है और भुला दिया गया है। वही आप का भी भाग्य होगा। आनेवाले १५० वर्षों में, आज हम जिन वाहनों या दूरभाष यन्त्रों का उपयोग डींगें हाँकने के लिए कर रहे हैं, उन में से कोई भी प्रासंगिक नहीं रहेगा। इसलिए जीवन को आसान बनाइये!

      प्रेम को नेतृत्व करने दीजिये। एक-दूसरे के लिए वास्तव में प्रसन्न रहिये। कोई द्वेष नहीं, कोई चुगली नहीं. कोई ईर्ष्या नहीं. कोई तुलना नहीं। जीवन कोई प्रतिस्पर्द्धा नहीं है। जीवन के अन्त में, हम सभी दूसरी ओर चले जायेंगे। यह सिर्फ एक प्रश्न है कि वहाँ पहले कौन पहुँचता है। निश्चित रूप से यह शत प्रतिशत सच है कि हम सभी एक दिन वहाँ जायेंगे। अतः पुनः विनती करता हूँ आप से कि अपने जीवन को जटिल नहीं, आसान बनाइये। 

मंगलवार, 11 अप्रैल 2023

पहली बार विश्व का मानचित्र भारत ने बनाया India Made The World Map For The First Time

११वीं शताब्दी में रामानुजाचार्य द्वारा महाभारत के श्लोकों के आधार पर बनाया गया विश्व का मानचित्र

-शीतांशु कुमार सहाय 

      एशिया, अफ्रीका, उत्तर अमेरिका, दक्षिण अमेरिका, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया और अण्टार्कटिक महाद्वीपों को इंगित करनेवाले मानचित्र का आविष्कार कहाँ हुआ? महादेशों और महासागरों को अभिव्यक्त करनेवाले रेखाचित्र की शुरुआत किस ने की? इन दो प्रश्नों के उत्तर में कई देश अपना दावा ठोंकते हैं। इन दावों को तथ्य के आधार पर पड़ताल करता हूँ। 

      पृथ्वी के महाद्वीपों के मानचित्र को लेकर कई दावे अब तक सामने आये हैं। इस सन्दर्भ में कई बातें कही जाती रही हैं। कोई कहता है कि सम्पूर्ण धरती का मानचित्र रोमन सभ्यता में बना था तो कोई इसे नार्वे के वाइकिंग्स की देन मानता है। पुर्तगाली और फ्रेंच भी पृथ्वी के भौगोलिक मानचित्र को अपनी खोज बताने से नहीं चूकते। इसी तरह अमेरिका के कोलम्बस को भारत की खोज का श्रेय दिया जाता है। ये सभी दावे तथ्यहीन हैं। उपर्युक्त दावों के दावेदार समर्थन में कोई ठोस प्रमाण नहीं दे पाते।

      सत्य यह है कि पृथ्वी का पहला भौगोलिक मानचित्र का निर्माण भारत में हुआ। चूँकि सृष्टि का आरम्भ भारत से हुआ, इसलिए समस्त ज्ञान का प्राकट्य भारत में हुआ और इन का विश्वव्यापी प्रसार भी। ऐसे में यह कहना कि किसी कोलम्बस ने भारत को खोजा तो यह बड़ी हास्यास्पद बात है। 

      भारतीय सभी क्षेत्रों में विश्व की अन्य सभ्यताओं से आगे थे। इस का प्रमाण हैं प्राचीन भारतीय ग्रन्थ जिन में अथाह ज्ञान भरे पड़े हैं। यहाँ मैं भौगोलिक मानचित्र की बात कर रहा हूँ। महाभारत के रचयिता महर्षि वेदव्यास ने विश्व को भौगोलिक मानचित्र का ज्ञान दिया। हालाँकि भारतीयों को यह ज्ञान वेदव्यास के प्रादुर्भाव से पूर्व भी था। वेदव्यास ने केवल उस भौगोलिक ज्ञान को पुस्तक के रूप में पहली बार संकलित किया। इस तथ्य को इस प्रकार समझिये कि वेदव्यास से पूर्व भी वेद और उस के ज्ञान का प्रसार था। वह ज्ञान श्रोत्र (सुनकर समझना) रूप में था। इसे सर्वसाधारण के लिए पुस्तक के रूप में संकलित किया वेदव्यास ने ही। इसलिए महर्षि कृष्णद्वैपायन का नाम वेदव्यास हो गया। वेदों के अलावा १०८ उपनिषद, १८ पुराण, महाभारत (इसी एक भाग श्रीमद्भगवद्गीता है) आदि ग्रन्थों में उन्होंने अतुलित ज्ञान का विशाल भण्डार दिया है। 

      महर्षि वेदव्यास ने ही भौगोलिक मानचित्र का ज्ञान विश्व समुदाय को दिया। उन्होंने महाभारत में पृथ्वी का पूरा मानचित्र हजारों वर्ष पूर्व ही दे दिया था।महाभारत में कहा गया है कि यह चन्द्रमण्डल से देखने पर पृथ्वी (स्थलीय भाग) दो अंशों मे शश (शशक या खरगोश) तथा अन्य दो अंशों में पिप्पल ( पीपल के पत्तों) के रुप में दिखायी देती है।

      इस आलेख के आरम्भ में जो मानचित्र दिया गया है, उसे ११वीं शताब्दी में रामानुजाचार्य द्वारा महाभारत के भीष्म पर्व के जिन श्लोकों के आधार पर बनाया गया, उन श्लोकों को आप भी जानिये...

“सुदर्शनं प्रवक्ष्यामि द्वीपं तु कुरुनन्दन।

परिमण्डलो महाराज द्वीपोऽसौ चक्रसंस्थितः॥

यथा हि पुरुषः पश्येदादर्शे मुखमात्मनः। 

एवं सुदर्शनद्वीपो दृश्यते चन्द्रमण्डले॥ 

द्विरंशे पिप्पलस्तत्र द्विरंशे च शशो महान्।”

      ऊपर के श्लोकों में कहा गया है... "हे कुरुनन्दन ! सुदर्शन नामक यह द्वीप चक्र की भाँति गोलाकार स्थित है, जैसे पुरुष दर्पण में अपना मुख देखता है, उसी प्रकार यह द्वीप चन्द्रमण्डल में दिखायी देता है। इस के दो अंशों में पिप्पल और दो अंशों में महान शश (शशक, खरहा या खरगोश) दिखायी देता है।"

      अब यहाँ मैं श्लोकों की बात को सत्य रूप में देखता हूँ। आलेख के आरम्भ में जो मानचित्र है उसे उलटकर देखेंगे तो वह खरहा और पीपल के पत्तों की तरह दिखायी देगा...

पृथ्वी का उल्टा मानचित्र 


सोमवार, 3 अप्रैल 2023

भौतिक जीवन और भौतिकता के नियम Physical Life And The Laws Of Materiality


 -शीतांशु कुमार सहाय 

      शिव को कभी किसी समस्या से नहीं गुजरना पड़ा। हाँ, ऐसे कुछ ऐसी स्थितियाँ अवश्य उत्पन्न हुईं, जब वे विचलित दीखे,जैसे कि जब उन्होंने अपनी प्रिया पत्नी सती को खो दिया तब वे कुछ समय तक गहरे दुख में रहे। पर, कुछ समय बाद, वह फिर से ठीक हो गये। हर किसी के साथ ऐसा ही होता है। अपने किसी बहुत पात्र को खोने के बाद भी कुछ समय तक दुख में रहने के बाद आप जीवन में आगे बढ़ जाते हैं। उन्हें भी उसी स्थिति का सामना करना पड़ा, इस में कोई बड़ी बात नहीं थी। कृष्ण को भी कई स्थितियों से गुजरना पड़ा और मेरे जीवन में भी ऐसा ही हुआ है। स्थितियाँ आती हैं, मगर कोई पीड़ा नहीं होती। चाहे जो भी हो जाय, उस से आप टूटते नहीं हैं, कमजोर नहीं पड़ते।

      अब प्रश्न यह है कि ऐसी स्थितियाँ कृष्ण, शिव, ईसा मसीह या मेरे सामने भी क्यों आती हैं? एक बार जब आप दुनिया में जीवन जीने का चयन कर लेते हैं, तो आप दुनिया के नियमों के वश में हो जाते हैं। मैं मानव निर्मित नियमों की बात नहीं कर रहा हूँ। पर, एक बार जब आप एक भौतिक शरीर अपनाने और दुनिया में एक भूमिका निभाने का फैसला कर लेते हैं, तो आप भी उन नियमों के अधीन हो जाते हैं, जो भौतिक अस्तित्व को नियन्तत करते हैं। 

      इसीलिए श्रीकृष्ण ने धर्म की बात की, गौतम बुद्ध ने धम्म की बात की और हम मूलभूत यौगिक सिद्धान्त की बात कर रहा हूँ; क्योंकि ये सिद्धान्त, धम्म या धर्म, जीवन के भौतिक आयाम को रास्ता दिखाते हैं या भौतिकता का मार्गदर्शन करते हैं। ईश्वर ऊपर बैठकर सारा प्रबन्ध नहीं कर रहे, सारा खेल कुछ नियमों और एक निश्चित प्रणाली के अनुसार संचालित हो रहा है।

      एक बार जब आप भौतिक आयाम में प्रवेश करने का मन बना लेते हैं, तो उस भौतिकता के नियम आप पर भी लागू होते हैं, चाहे आप कोई भी हों। आप कृष्ण हों, शिव हों या सद्‌गुरु हों – अगर आप विष पियेंगे, तो आप की मृत्यु हो जायेगी। हो सकता है कि आप के अंदर बहुत आवश्यक होने पर किसी-न-किसी तरह कुछ स्थितियों से परे जाने की क्षमता हो। हो सकता है कि आप की मौत न हो मगर फिर भी आप को कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी। उस से आप बच नहीं सकते। अगर आप छत से नीचे गिरेंगे, तो कुछ न कुछ टूटेगा ही, चाहे आप जो भी हों – क्योंकि आप ने भौतिक में रहने का फैसला किया है। अगर आप ऐसी स्थिति में होना चाहते हैं, जहाँ कहीं से गिरकर भी आप को कुछ न हो, तो आप को शरीरहीन होना पड़ेगा। जब आप भौतिक शरीर छोड़ देते हैं, तो भौतिक नियम आप पर लागू नहीं होते। जब तक आप के पास एक भौतिक शरीर है, आप भौतिकता के नियमों के अधीन होते हैं। दूसरे आयामों पर भी यही बात लागू होती है। जब आप भौतिक या अभौतिक जीवन से ऊब जाते हैं, तभी मुक्ति की चाह उत्पन्न होती है।

      जब आप भौतिक दुनिया में होते हैं, तो इस भौतिक दुनिया के कुछ मूर्ख आप को धौंस दिखाते हैं। जब आप शरीरहीन दुनिया में होते हैं, तो कुछ शरीरहीन मूर्ख आप को धौंस दिखाते हैं। जब आप दिव्य दुनिया में होते हैं, तो कुछ दिव्य मूर्ख आप को तंग करते हैं। इन चीजों को देखते हुए, बुद्धिमान लोग मुक्ति चाहते हैं। आप ऐसी स्थिति में होना चाहते हैं, जहाँ कोई भी आप के ऊपर धौंस न जमा सके। किसी भी चीज के अधीन न होने के लिए आप को ऐसी स्थिति में आना होगा जहाँ या तो आप ‘कुछ नहीं’ हों या ‘सब कुछ’ बन जायें। इसे आप दोनों तरह से देख सकते हैं। आप को असीम हो जाना होगा; ताकि कोई भी आप को अधीन न कर सके। भले ही आप अपने अंदर असीम हों लेकिन एक बार जब आप भौतिक शरीर में रहना तय कर लेते हैं, तो भौतिक नियम आप के ऊपर लागू होते हैं। 

      यही कारण है कि अधिकतर ज्ञानी जीव अपने शरीर में नहीं रहते। एक बार जब उन्हें परे जाने की कुञ्जी मिल जाती है, तो उन्हें शरीर से चिपके रहने और भौतिकता के अधीन रहने में कोई समझदारी नहीं लगती। यह ऐसा ही है, मानो आप देश के प्रधान मंत्री हों और एक छोटे से गाँव में आने पर पंचायत का प्रमुख आप पर धौंस जमाये। सभी ज्ञानी प्राणियों का यही अनुभव होता है। उन के पास परे जाने की कुञ्जी होती है, वे कहीं और हो सकते हैं मगर एक भौतिक शरीर अपना लेने के बाद भौतिक क्षेत्र की हर चीज और हर इंसान लाखों अलग-अलग रूपों में उन पर मर्जी चलाता है। श्रीकृष्ण ने कई बार यह कहा है कि ईश्वर के रूप में उन्हें इन चीजों के अधीन होने की आवश्यकता नहीं होती; क्योंकि उन्होंने एक मानव शरीर अपनाया, वे भौतिक आयाम में धर्म की स्थापना करना चाहते थे, इसलिए उन्हें भौतिक नियमों के अधीन होना पड़ा। कुछ लोग उन की पूजा करते थे। पर, कुछ अलग प्रवृत्ति के लोग बार-बार ग्वाला कहकर उन की हँसी उड़ाते थे। प्यार से नहीं; बल्कि नीचा दिखाने के लिए उन्हें 'गोपाल' कहा। उन्हें यह सब सहन करने की आवश्यकता नहीं होती मगर उन्होंने धर्म की स्थापना का बीड़ा उठाया था, इसलिए उन्हें ऐसे कई अपमान सहने पड़े।

शनिवार, 11 मार्च 2023

हनुमान द्वादशनाम स्तोत्र Hanuman Dwadashnam Stotra

 


-शीतांशु कुमार सहाय 

      भगवान शिव के रुद्रावतार भगवान हनुमानजी कलियुग में भक्तों के संरक्षण के लिए सशरीर पृथ्वी पर निवास कर रहे हैं। द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन के ध्वज में वास करनेवाले अपने अप्रतिम भक्त हनुमानजी को कलियुग के अन्त तक सशरीर पृथ्वी पर निवास करने का आदेश दिया। वे भक्तों में आध्यात्मिकता को प्रगाढ़ कर धर्म-मार्ग पर प्रेरित करते हैं। नकारात्मक अदृश्य शक्तियों (प्रेत, यक्ष, पिशाच आदि) से रक्षा करते हैं। संकटों से उबारते हैं। 

      चूँकि कलियुग का अन्त बहुत निकट है। अतः हमें धर्म-मार्ग का अनुसरण करते हुए भगवान हनुमानजी की आराधना करनी चाहिये; ताकि युग के परिवर्तन के दौरान होनेवाले कष्टों से बच सकें और मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो सके।

      यहाँ प्रस्तुत है 'हनुमान द्वादशनाम स्तोत्र'। इसे ब्रह्म-मुहूर्त में पढ़ने या ध्यानपूर्वक सुनने से निश्चय ही कल्याण होता है।

हनुमानञ्जनीसूनुर्वायुपुत्रो महाबल:।
रामेष्ट: फाल्गुनसख: पिङ्गाक्षोऽमितविक्रम:॥
उदधिक्रमणश्चैव सीताशोकविनाशन:।
लक्ष्मणप्राणदाता च दशग्रीवस्य दर्पहा॥

      हनुमानजी के द्वादश (बारह) नाम ये हैं :-

१. हनुमान,

२. अञ्जनीपुत्र,

३. वायुपुत्र,

४. महाबल,

५. रामेष्ट,

६. फाल्गुनसखा,

७. पिङ्गाक्ष,

८. अमितविक्रम,

९. उदधिक्रमण,

१०. सीताशोकविनाशक,

११. लक्ष्मणप्राणदाता,

१२. दशग्रीवस्य दर्पहा। 

मंगलवार, 7 मार्च 2023

होली : जीवन का अभिन्न अंग है रंग Holi : Colour Is An Integral Part Of Life

 शीतांशु कुमार सहाय

   

    
हो-ली अर्थात् किसी के साथ हो लेने को ही 
होली की संज्ञा दी जाती है। चूँकि ईश्वर ने मनुष्य को बुद्धि के उपरान्त विवेक भी दिया है, इसलिए विवेकानुसार अच्छाई के साथ ही होना मनुष्यता को प्रदर्शित करेगा। मनुष्यता प्रदर्शित करते हुए अच्छाई के साथ हो लीजिये और तब देखिये कि होली का कितना मज़ा आता है! मज़ा तो तब सजा में बदल जाता है, जब बुराई के साथ हो लिया जाता है। यकीन मानिये कि होली में अधिकतर बुराई को ही आत्मसात् करने की एक परम्परा-सी चल पड़ी है। खूब नशा करो और जी भरकर हुल्लड़बाजी करोअगर कोई प्रतिकार करे तो जबर्दस्ती करो और सामनेवाला अगर शक्तिशाली निकला तो बुरा न मानो होली है का घिसा-पिटा जुमला सुना दो। यही सूत्र वाक्य हो गया है आजकल होली का। इसे कभी भी उचित नहीं ठहराया जा सकता। 
      उपर्युक्त संदर्भ को यदि अपने ऊपर लागू करवाएँ तो आप को शालीन होली का अभद्र स्वरूप दिखायी देगा। जो शालीन है उसे शालीन ही रहने दीजिये। "प्यार को प्यार ही रहने दोकोई और नाम न दो।शानदार परम्परा को बिगाड़ने का अनधिकृत अधिकार अपने हाथों में लेकर स्वयं को निन्दा का पात्र बनाना उचित तो नहीं। वास्तव में होली का सरोकार न नशे से है और न ही अभद्रता से। इस का सम्बन्ध तो अहंकारशून्य होकर सौहार्द फैलाने से है। यह सौहार्द केवल सनातन धर्म से ही आबद्ध न होकर सम्पूर्ण समाज से जुड़ा है। 

       सौहार्द से पारस्परिक प्रेम का ऐसा प्रणयन होता है जो युगों-युगों तक घर-परिवार-समाज को स्नेह की शीतल छाया प्रदान करता रहता है। ऐसे वातावरण में अहंकारशून्य अर्थात् संस्कारित संतति उत्पन्न होती है। ऐसे संस्कारवानों से ही समतामूलक समाज की उत्पत्ति होती है। समानता पर आधारित समाज के निर्माण में जब प्रह्लाद को भारी समस्या का सामना करना पड़ाघर-परिवार का भी सहयोग नहीं मिलायहाँ तक कि पिता हिरण्यकश्यप (हिरण्यकशिपु) भी जान के दुश्मन बन गये तब भगवान को आना ही पड़ा। सामाजिक सौहार्द के शत्रु का अवसान हुआ और फिर से अमन-चैन का राज कायम हुआ। यह पौराणिक घटना केवल धर्मारूढ़ नहींबल्कि सर्वधर्म समभाव पर लागू होनेवाला वैज्ञानिक सत्य है। इसे नकारा नहीं जा सकता। वैज्ञानिकता यह कि किसी भी प्राणी-योनि में जन्म लेकर अमरता को आत्मसात् नहीं किया जा सकता। कोई-न-कोई एक कारण होगा ही जिस के कारण मौत को गले लगाना पड़ेगा। इसी कारण न धरतीन आकाशन पाताल मेंन दिन मेंन रात मेंन किसी अस्त्र-शस्त्र से और किसी मानव-दानव-देव के हाथों न मरने का वरदान पाकर हिरण्यकश्यप अपने को अमर समझने की भूल कर बैठा। इसलिए भगवान को नरसिंह का रूप धारण कर संधि काल में अपने घुटने पर रखकर भयानक नाखूनों से उसे मृत्यु दण्ड देना पड़ा। यहाँ जाननेवाली वैज्ञानिकता यह है कि दूसरों को सताते समय अहंकारवश अपने को अमर समझने की भूल
होली की मङ्गलकामना 

की जाती है। इसी 
भूल को जला डालना ही वास्तविक होलिका दहन है। 

       समस्त भूलों व दुष्प्रवृत्तियों को जलाने के पश्चात् रंगों से होली खेलने की बारी आती है। लालपीलेहरेनीले- सभी रंग मिलकर एक हो जाते हैं। रंगों से सराबोर सब के चेहरे एक जैसे लगते हैं। किसी में कोई फर्क नहीं रह जाता है। सभी समान नजर आते हैं। होली अपनी समता यहीं प्रकट करती है। विभिन्न रंगों में छिपे चेहरों में कौन खरबपति और कौन खाकपति हैयह पता लगाना मुश्किल होता है। कौन खाते-खाते परेशान है और कौन खाये बिना, रंगों के बीच यह विभेद भी सम्भव नहीं। 
     याद रखिये कि जीवन का अंग है रंगइसे दुत्कारिये नहीं स्वाकारिये। वसन्त के इस रंगीले पर्व के माध्यम से अपने जीवन में भी नवविहान लाइयेरंगीन हो जाइये होली के साथ!
 

मंगलवार, 24 जनवरी 2023

अन्दमान-निकोबार के इक्कीस द्वीपों को मिले परमवीर चक्र विजेताओं के नाम Twentyone Islands Of Andaman-Nicobar Got The Names Of Paramveer Chakra Winners

 प्रस्तोता : शीतांशु कुमार सहाय 

      भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सुभाष चन्द्र बोस की जयन्ती 'पराक्रम दिवस' के अवसर पर २३ जनवरी २०२३ को अन्दमान-निकोबार द्वीप समूह के इन इक्कीस द्वीपों के नाम परमवीर चक्र विजेताओं के नाम पर रखने की घोषणा की...

1. INAN 198- नायक जदुनाथ सिंह (भारत-पाक युद्ध 1947)

2. INAN 474- मेजर राम राघोबा राणे (भारत-पाक युद्ध 1947)

3. INAN 308- ऑनरेरी कैप्टन करम सिंह (भारत-पाक युद्ध 1947)

4. INAN 370- मेजर सोमनाथ शर्मा (भारत-पाक युद्ध 1947)

5. INAN 414- सूबेदार जोगिंदर सिंह (भारत-चीन युद्ध 1962)

6. INAN 646- लेफ्टिनेंट कर्नल धन सिंह थापा (भारत-चीन युद्ध 1962)

7. INAN 419- कैप्टन गुरबचन सिंह (भारत-चीन युद्ध 1962)

8. INAN 374- कम्पनी हवलदार मेजर पीरू सिंह (भारत-पाक युद्ध 1947)

9. INAN 376- लांस नायक अलबर्ट एक्का (भारत-पाक युद्ध 1971)

10. INAN 565- लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर तारापोर (भारत-चीन युद्ध 1962)

11. INAN 571- हवलदार अब्दुल हमीद (भारत-पाक युद्ध 1965)

12. INAN 255- मेजर शैतान सिंह (भारत-चीन युद्ध 1962)

13. INAN 421- मेजर रामास्वामी परमेश्वरन (श्रीलंका में भारतीय शांति सेना के शहीद 1987)

14. INAN 377- फ्लाइंग ऑफिसर निर्मलजीत सिंह सेखों (भारत-पाक युद्ध 1971)

15. INAN 297- सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल (भारत-पाक युद्ध 1971)

16. INAN 287- मेजर होशियार सिंह (भारत-पाक युद्ध 1971)

17. INAN 306- कैप्टन मनोज पांडेय (कारगिल युद्ध 1999)

18. INAN 417- कैप्टन विक्रम बत्रा (कारगिल युद्ध 1999)

19. INAN 293- नायक सूबेदार बाना सिंह (सियाचिन में पाकिस्तान से पोस्ट छीनी 1987)

20. INAN 193- कैप्टन योगेंद्र सिंह यादव (कारगिल युद्ध 1999)

21. INAN 536- सूबेदार मेजर संजय कुमार (कारगिल युद्ध 1999)


शनिवार, 14 जनवरी 2023

२०८० तक मकर संक्रान्ति १५ जनवरी को ही, जानिये महत्ता, धार्मिकता और ऐतिहासिकता Makar Sankranti Only on 15th January, Know Significance, Religiosity & Historicity




    -शीतांशु कुमार सहाय 

      सन् २०८० ईस्वी तक मकर संक्रान्ति १५ जनवरी को ही मनायी जायेगी। यह धारणा सही नहीं है कि मकर संक्रान्ति केवल १४ जनवरी को ही मनायी जाती है। यह पृथ्वी, सूर्य आदि की खगोलीय गति पर आधारित है। यह गूढ़ ज्ञान पूरी तरह भारतीय ज्योतिषीय गणना है। हमारे इस प्राचीन वैज्ञानिक प्रगति को देखकर आज का विज्ञान और वैज्ञानिक हतप्रभ हैं। इस गणना का परिणाम आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर भी पूरी तरह सच सिद्ध होता है। वास्तव में सूर्य के उत्तरायण होने के प्रथम दिवस को मकर संक्रान्ति का पर्व मनाया जाता है। इस दिन सूर्य मकर राशि में प्रवेश करते हैं। सूर्य के उत्तरायण अवधि (छः माह) को पुण्य काल माना जाता है। भगवान ने 'श्रीमद्भगवद्गीता' में भी इस की चर्चा करते हुए कहा है कि इस काल में मृत्यु को प्राप्त होने वाला जीव देवलोक में जाता है या जीवन-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है। यही कारण है कि शर-शय्या के कष्ट को सहते हुए भी भीष्म पितामह ने सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा की और तब प्राण त्यागे। यहाँ मकर संक्रान्ति की महत्ता, धार्मिकता और ऐतिहासिकता पर सामान्य नज़र डालते हैं :- 

गंगा मिली थीं सागर से

      मकर संक्रांति के दिन ही स्वर्ग से पृथ्वी पर आने के बाद माँ गंगा महर्षि भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होती हुई नदी रूप में सागर में जाकर मिली थीं। वर्तमान में उस सागर को बंगाल की खाड़ी कहते हैं। जिस स्थान पर बंगाल की खाड़ी में गंगा मिलती है, उस स्थान को गंगा सागर कहा जाता है। इस उपलक्ष्य में मकर संक्रान्ति के अवसर पर गंगा सागर में मेला लगता है और विश्व भर के श्रद्धालु यहाँ डुबकी लगाते हैं। इस दिन गंगा, अन्य नदियों और तीर्थों में स्नान करने की पवित्र परम्परा है।

 श्राद्ध और तर्पण का दिन 

     महाराज भगीरथ ने अपने पूर्वजों के लिए मकर संक्रान्ति के दिन तर्पण किया था। राजा भगीरथ ने अपने पूर्वजों का गंगाजल, अक्षत, तिल से श्राद्ध व तर्पण किया था। तब से मकर संक्रांति स्नान और मकर संक्रांति श्राद्ध तर्पण की प्रथा आज तक प्रचलित है। पावन गंगा जल के स्पर्श मात्र से राजा भगीरथ के पूर्वजों को स्वर्ग की प्राप्ति हुई थी। कपिल मुनि ने वरदान देते हुए कहा था, "हे माँ गंगे! त्रिकाल तक जन-जन का पापहरण करेंगी और भक्तजनों की सात पीढ़ियों को मुक्ति एवं मोक्ष प्रदान करेंगी। गंगा जल का स्पर्श, पान, स्नान और दर्शन सभी पुण्यफल प्रदान करेगा।"

गंगा को पृथ्वी पर क्यों लाये भगीरथ

      एक कथा के अनुसार, एक बार राजा सगर ने अश्वमेघ यज्ञ किया और अपने अश्व को विश्व-विजय के लिए छोड़ दिया। इन्द्रदेव ने उस अश्व को छल से कपिल मुनि के आश्रम में बाँध दिया। जब कपिल मुनि के आश्रम में राजा सगर के साठ हजार पुत्र युद्ध के लिए पहुँचे तो कपिल मुनि ने शाप देकर उन सब को भस्म कर दिया। राजा सगर के पोते अंशुमान ने कपिल मुनि के आश्रम में जाकर विनती की और अपने परिजनों के उद्धार का रास्ता पूछा। तब कपिल मुनि ने बताया कि इन के उद्धार के लिए गंगा को धरती पर लाना होगा। तब राजा अंशुमान ने तप किया और अपनी आनेवाली पीढ़ियों को यह सन्देश दिया। बाद में अंशुमान के पुत्र दिलीप के यहाँ भगीरथ का जन्म हुआ और उन्होंने अपने पूर्वज की इच्छा पूर्ण की। भगीरथ की तपस्या के प्रभाव से ही स्वर्ग में प्रवाहित होनेवाली पवित्र नदी गंगा पृथ्वी पर आयीं। पृथ्वीवासी माँ की पवित्र संज्ञा देते हुए गंगा की पूजा करते हैं। 

असुरों के अन्त का दिन 

      मकर संक्रान्ति के दिन ही भगवान विष्णु ने असुरों का अन्त कर युद्ध समाप्ति की घोषणा की थी। उन्होंने सभी असुरों के सिरों को मन्दार पर्वत में दबा दिया था। इसलिए यह दिन बुराइयों और नकारात्मकता को समाप्त करने का सन्देश देता है।

दैनिक सूर्य पूजा 

      अत्यन्त प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति में दैनिक सूर्य पूजा का प्रचलन चला आ रहा है। रामकथा में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम द्वारा नित्य सूर्य पूजा का उल्लेख मिलता है। मकर संक्रान्ति के दिन सूर्य की विशेष आराधना होती है।

सूर्य की सातवीं किरण

      सूर्य की सातवीं किरण भारतवर्ष में आध्यात्मिक उन्नति की प्रेरणा देनेवाली है। सातवीं किरण का प्रभाव भारत वर्ष में गंगा-यमुना के मध्यभूमि पर अधिक समय तक रहता है। इस भौगोलिक स्थिति के कारण ही हरिद्वार और प्रयाग में माघ मेला अर्थात् मकर संक्रान्ति या पूर्ण कुम्भ अथवा अर्द्धकुम्भ मेले के विशेष धार्मिक उत्सव का आयोजन होता है। 

      यहाँ यह जानने की बात है कि भारतीय हजारों-लाखों वर्ष पूर्व ही यह जानते थे कि सूर्य से सात प्रमुख रंगों की किरणें निकलती हैं। आधुनिक विज्ञान ने तो प्रिज्म के आविष्कार के बाद यह जान सका कि धूप में सात रंग की किरणें हैं- बैंगनी, नीला, आसमानी, हरा, पीला, नारंगी और लाल। इन रंगों के मिश्रण से अनेक रंग बनाये जा सकते हैं।  

भीष्म और उत्तरायण सूर्य

      द्वापर युग में भीष्म पितामह ने अपनी देह त्यागने के लिए सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा की थी। उत्तरायण में देह छोड़नेवाली आत्माएँ या तो कुछ काल के लिए देवलोक में चली जाती हैं या पुनर्जन्म के चक्र से उन्हें छुटकारा मिल जाता है। भीष्म का श्राद्ध-संस्कार भी सूर्य की उत्तरायण गति में हुआ था। फलतः आज तक पितरों की प्रसन्नता के लिए तिल अर्घ्य एवं जल तर्पण की प्रथा मकर संक्रान्ति के अवसर पर प्रचलित है।

पुत्र के घर जाते हैं सूर्यदेव 

      मकर संक्रान्ति के दिन सूर्यदेव अपने पुत्र शनिदेव के घर (मकर) एक महीने के लिए जाते हैं। विदित हो कि मकर राशि के स्वामी शनि हैं। मतलब यह कि मकर संक्रान्ति के दिन सूर्य मकर राशि में प्रवेश करते हैं। पहले कुम्भ राशि के स्वामी धे शनिदेव। इस सन्दर्भ में एक कथा जानिये। 

सूर्य और शनि की कथा

      कथा के अनुसार, सूर्यदेव ने शनि और उन की माता छाया को स्वयं से अलग कर दिया था। इस कारण शनि के प्रकोप के चलते उन्हें कुष्ठ रोग हो गया था। तब सूर्यदेव के दूसरे पुत्र यमराज ने रोग को ठीक किया। रोगमुक्त होने के बाद सूर्यदेव ने क्रोधवश शनि के घर कुम्भ को जला दिया था। तत्पश्चात् यमराज के समझाने पर वे जब शनि के घर गये तो उन्होंने वहाँ देखा कि सबकुछ जल चुका था केवल काला तिल ही शेष बचा था। अपने पिता को देखकर शनिदेव ने उन का स्वागत उसी काले तिल से किया। इस से प्रसन्न होकर सूर्य ने उन्हें दूसरा घर ‘मकर’ उपहार में दे दिया। इस के बाद सूर्यदेव ने शनि को कहा कि जब वे उनके नये घर मकर में आयेंगे, तो उन का घर फिर से धन-धान्य से भर जायेगा। साथ ही कहा कि मकर संक्रान्ति के दिन जो भी काले तिल और गुड़ से मेरी पूजा करेगा उस के सभी कष्ट दूर हो जायेंगे।

श्रीकृष्ण के लिए यशोदा का व्रत 

      माता यशोदा ने श्रीकृष्‍ण के लिए व्रत किया था तब सूर्य उत्तरायण हो रहे थे। मतलब यह कि उस दिन मकर संक्रान्ति थी। तभी से पुत्र और पुत्री के सौभाग्य के लिए मकर संक्रान्ति के व्रत का प्रचलन प्रारंभ हुआ।

पुण्यकाल 

      मकर संक्रान्ति के दिन सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण गति करने लगते हैं। इस दिन से देवताओं का छः माह आरम्भ होता है, जो आषाढ़ मास तक रहता है। सूर्य के उत्तरायण होने के बाद से देवों की ब्रह्म मुहूर्त उपासना का पुण्यकाल प्रारम्भ हो जाता है। इस काल को ही परा-अपरा विद्या की प्राप्ति का काल कहा जाता है। इसे साधना का सिद्धिकाल भी कहा गया है। इस काल में देव प्रतिष्ठा, गृह निर्माण, यज्ञ कर्म आदि शुभ कर्म किये जाते हैं। मकर संक्रान्ति के एक दिन पूर्व से ही व्रत उपवास में रहकर योग्य पात्रों को दान देना चाहिए।

आराधना का विशेष अवसर

     वास्तव में मकर संक्रांति का पर्व ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गणेश, आद्यशक्ति और सूर्य की आराधना एवं उपासना का पावन व्रत है, जो तन-मन-आत्मा को शक्ति प्रदान करता है। इस के प्रभाव से प्राणी की आत्मा शुद्ध होती है। संकल्प शक्ति बढ़ती है। ज्ञान तन्तु विकसित होते हैं। मकर संक्रान्ति चेतना को विकसित करनेवाला पर्व है।

तिल के छः प्रयोग अवश्य करें 

      विष्णु धर्मसूत्र में उल्लेख है कि पितरों की आत्मा की शान्ति के लिए और स्वयं के स्वास्थ्यवर्द्धन तथा सर्वकल्याण हेतु तिल के छः प्रयोग पुण्यदायक एवं फलदायक होते हैं- तिल जल से स्नान करना, तिल दान करना, तिल से बना भोजन, जल में तिल अर्पण, तिल से आहुति, तिल का उबटन लगाना।

खिचड़ी की परम्परा 

मकर संक्रान्ति के दिन खिचड़ी ग्रहण करने की परम्परा बहुत ही पुरानी है। एक ऐतिहासिक कथा के अनुसार, आतंकी और मुस्लिम हमलावर अलाउद्दीन खिलजी और उस की सेना के विरुद्ध बाबा गोरखनाथ (गोरक्षनाथ) और उन के शिष्यों (योगियों) ने भी धर्म और आमजन की रक्षा के लिए  जमकर युद्ध किया था। युद्ध के कारण समयाभाव में योद्धा योगी भोजन पकाकर खा नहीं पाते थे। इस कारण योगियों की शारीरिक शक्ति घटती जा रही थी। तब बाबा गोरखनाथ ने दाल, चावल और हरी सब्जियों और औषधियों (मसालों) को मिलाकर एक व्यञ्जन तैयार किया। इसे 'खिचड़ी' की संज्ञा दी गयी। यह कम समय और कम परिश्रम में बनकर तैयार हो गया। इस के सेवन से योगी शारीरिक रूप से ऊर्जावान भी रहते थे। खिलजी जब भारत छोड़कर गया तो योगियों ने मकर संक्रान्ति के उत्सव में प्रसाद के रूप में खिचड़ी बनायी। इस कारण प्रतिवर्ष मकर संक्रान्ति पर खिचड़ी बनाने और ग्रहण करने की परम्परा चल पड़ी। गोरखपुर में बाबा गोरखनाथ को खिचड़ी का भोग लगाकर इसे प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है।

      



      भगवान की कृपा आप पर बनी रहे!


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सोमवार, 9 जनवरी 2023

जैन के चौबीस तीर्थंकर Twentyfour Tirthankaras of Jainism



 -शीतांशु कुमार सहाय 

     सनातन धर्म का एक महत्त्वपूर्ण सम्प्रदाय 'जैन' है। विश्व में इस के करोड़ों अनुयायी हैं। इस की विशालता को देखते हुए इसे 'जैन धर्म' की भी संज्ञा दी जाती है। जैन सम्प्रदाय में कुल २४ तीर्थंकर हुए। इन के क्रमवार नाम जानिये :-

१. ऋषभदेव जी (आदिनाथ),
२. अजितनाथ जी,
३. सम्भवनाथ जी,
४. अभिनन्दननाथ जी,
५. सुमतिनाथ जी,
६. पद्मप्रभुनाथ जी,
७. सुपार्श्वनाथ जी,
८. चन्दाप्रभुनाथ जी,
९. . सुमतिनाथ जी,
१०. शीतलनाथ जी,
११. श्रेयांसनाथ जी,
१२. वासुपूज्यनाथ जी,
१३. विमलनाथ जी,
१४. अनन्तनाथ जी,
१५. धर्मनाथ जी,
१६. शान्तिनाथ जी,
१७. कुन्थुनाथ जी,
१८. अरहनाथ जी,
१९. मल्लिनाथ जी,
२०. सुव्रतनाथ जी,
२१. नमिनाथ जी,
२२. नेमिनाथ जी (अरिष्टनेमिनाथ जी)
२३. पार्श्वनाथ जी और 
२४. वर्द्धमान महावीर स्वामी जी। 

सोमवार, 26 दिसंबर 2022

वीर बाल दिवस : धर्म और देश की रक्षा का संकल्प लें Veer Bal Diwas : Take a Pledge to Protect Religion and Country



  शीतांशु कुमार सहाय 

   यह शत प्रतिशत सच है कि जो क़ौम अपने इतिहास को भूल जाता है या भूलने की कोशिश करता है, उसे मिटने में देर नहीं लगती। 

      कल २५ दिसम्बर को सब ने क्रिसमस दिवस और तुलसी पूजन दिवस को याद किया लेकिन आज किसी ने देश और धर्म की रक्षा के लिए अपने बलिदान देनेवाले गुरु गोविन्द सिंह जी के सुपुत्रों को याद नहीं किया। जोरावर सिंह जी व फतेह सिंह जी को आज (२६ दिसम्बर) ही के दिन आततायी मुगलों ने ज़िन्दा ही दीवार में चुनवा दिया था। 

      २६ दिसंबर १७०४ ईस्वी को गुरु गोविन्द सिंह जी के दो पुत्रों जोरावर सिंह (९ वर्ष) और फतेह सिंह (७ वर्ष) को इस्लाम धर्म कबूल न करने पर सरहिन्द के नवाब मिर्जा अस्करी उर्फ वज़ीर खान ने दीवार में ज़िंदा चुनवा दिया था, माता गुजरी को किले की दीवार से गिराकर शहीद कर दिया गया था। उन की इस शहादत के लिए फतेहगढ़ साहिब गुरुद्वारा में शहीदी जोड़ मेले का आयोजन हर वर्ष किया जाता है।

      स्वयं वीर बनें और बच्चों को भी ऐतिहासिक वीरों और वीरांगनाओं से परिचित कराएँ; ताकि वे भी अपने अन्दर वीरता महसूस कर सकें। 

      आप सब 'वीर बाल दिवस' के अवसर पर धर्म और देश की रक्षा का संकल्प लेंगे, ऐसी प्रत्याशा है। 

      वन्दे मातरम्!

गुरुवार, 10 नवंबर 2022

लक्ष्मण रेखा और सोमतिती विद्या के रहस्य Secrets of Lakshman Rekha & Somatitee Vidya

 प्रस्तोता : शीतांशु कुमार सहाय 


    रामायण में एक प्रसङ्ग है कि माता सीता की सुरक्षा के लिए लक्ष्मण ने एक विशेष रेखा खींच दी थी। उन्होंने अपनी भाभी सीता से आग्रह किया था कि वह उस रेखा के अन्दर ही रहें। कोई भी व्यक्ति या कोई सूक्ष्म अथवा स्थूल जीव उस रेखा के अन्दर प्रवेश नहीं कर सकता। अगर वह प्रवेश करने का प्रयास करेगा तो भस्म हो जायेगा। हालाँकि रेखा के अन्दर वाला व्यक्ति सकुशल बाहर आ सकता है लेकिन बाहर से कोई अन्दर नहीं जा सकता।  कालान्तर में यह 'लक्ष्मण रेखा' के नाम से प्रसिद्ध हो गया। लक्ष्मण रेखा आप सभी जानते हैं पर इस का असली नाम सम्भवतः आप को नहीं पता होगा। मैं बताता हूँ कि लक्ष्मण रेखा खींचनेवाली विद्या को 'सोमतिती विद्या' कहा जाता है।

      रावण जब ब्राह्मण के वेश में सीता-हरण के लिए आया तो वह अपने तप-बल से यह जान गया कि अतिदुर्लभ सोमतिती विद्या से खींची गयी अग्नि और विद्युत तरंगों से युक्त अत्यन्त विध्वन्सक इस रेखा को वह पार नहीं कर सकता है तो उस ने छल से माँ सीता को ही रेखा के बाहर बुला लिया और अपहरण करने में सफल रहा।

      सोमतिती विद्या भारत की प्राचीन विद्याओ में से एक है। इस का अन्तिम प्रयोग द्वापर युग में महाभारत युद्ध के दौरान हुआ था। वर्तमान कलियुग में इस दुर्लभ विद्या का ज्ञाता कोई नही है। 

      महर्षि शृंगी ने सोमतिती विद्या के सन्दर्भ में बताया है कि वेदमन्त्र "सोमंब्रहि वृत्तं रत: स्वाहा वेतु सम्भव ब्रहे वाचम प्रवाणम अग्नं ब्रहे रेत: अवस्ति" के माध्यम से इस विद्या का प्रयोग किया जाता है। यह वेदमंत्र सोमना कृतिक यन्त्र का है। इसे पृथ्वी और बृहस्पति के मध्य अंतरिक्ष में स्थापित किया जाता है। कृतिक यंत्र जल, वायु और अग्नि के परमाणुओं को अपने अन्दर सोखता है और विशेष प्रकार से अग्नि और विद्युत के परमाणुओं को वापस बाहर की तरफ धकेलता है।

      ऊपर जिस वेदमन्त्र का उल्लेख किया गया है उसे सिद्ध करने से सोमना कृतिक यंत्र स्वयं में अग्नि और वायु में उपस्थित जल के परमाणु अवशोषित कर लेता है। उन परमाणुओं में आकाशीय विद्युत को शामिल किया जाता है। इस के उपरान्त अग्नि, जल और विद्युत के परमाणुओं को एक पंक्ति में व्यवस्थित किया जाता है। इस प्रकार एक अत्यन्त शक्तिशाली किरण का निर्माण होता है। यन्त्र की सहायता से इन विशेष किरणों द्वारा पृथ्वी पर गोलाकार रेखा खींची जाती है जो सोमतिती रेखा कहलाती है। इस के अन्दर जो भी रहेगा वह सुरक्षित रहेगा लेकिन बाहर से अन्दर अगर कोई बलात् प्रवेश करना चाहे तो उसे अग्नि और विद्युत का ऐसा झटका लगेगा कि वहीं भस्म बनकर उड़ जायेगा।

      एक बार महर्षि भारद्वाज ऋषि-मुनियों के साथ भ्रमण करते हुए वशिष्ठ आश्रम पहुँचे तो उन्होंने महर्षि वशिष्ठ से पूछा-- अयोध्या के राजकुमारों की शिक्षा कहाँ तक पहुँची?

      महर्षि वशिष्ठ ने बताया कि राम आग्नेयास्त्र, वरुणास्त्र और ब्रह्मास्त्र का सन्धान करना सीख लिया है। यह धनुर्वेद में पारंगत हो गया है। महर्षि विश्वामित्र से लक्ष्मण दुर्लभ सोमतिती विद्या सीख रहा है। 

      त्रेतायुग के उस काल में पृथ्वी पर चार गुरुकुलों में सोमतिती विद्या सिखायी जाती थी। ये चार गुरुकुल थे- महर्षि विश्वामित्र का गुरुकुल, महर्षि वशिष्ठ का गुरुकुल, महर्षि भारद्वाज का गुरुकुल और उदालक गोत्र के आचार्य शिकामकेतु का गुरुकुल।

      लक्ष्मण सोमतिती विद्या के इतने प्रसिद्ध जानकर के रूप में विख्यात हुए कि कालान्तर में यह विद्या सोमतिती के बदले लक्ष्मण रेखा कहलाई जाने लगी।

      महर्षि दधीचि, महर्षि शाण्डिल्य भी सोमतिती विद्या को जानते थे। 

      भगवान श्रीकृष्ण ने इस विद्या का अन्तिम बार पृथ्वी पर प्रयोग किया। उन्होंने महाभारत धर्मयुद्ध में कुरुक्षेत्र के युद्ध भूमि के चारों तरफ सोमतिती रेखा खींच दी थी; ताकि युद्ध में प्रयुक्त भयंकर शस्त्रास्त्रों का प्रतिकूल प्रभाव युद्धक्षेत्र से बाहर के प्राणियों पर न पड़े।

      सोमतिती की तरह कई दुर्लभ विद्याओं के जानकार प्राचीन भारत में रहते थे। भारतीय ग्रन्थों में आज भी कई कल्याणकारी विद्याओं के रहस्य छिपे हैं।  

बुधवार, 19 अक्तूबर 2022

रामायण की शूटिंग में साक्षात् काकभुशुण्डी आये और रामानन्द सागर के निर्देशन में शूटिंग की Kakbhushundi Came In The Shooting Of Ramayana & Shot Under The Direction Of Ramanand Sagar



-प्रस्तोता : शीतांशु कुमार सहाय      

     दूरदर्शन के अतिप्रसिद्ध धारावाहिक 'रामायण' की शूटिंग के समय निर्देशक रामानन्द सागर के लिए सब से मुश्किल कार्य था, काकभुशुण्डी और शिशु राम के दृश्य फिल्माना। दोनों ही निर्देशक के आदेश का तो पालन करने से रहे। इसी कारण रामानन्द सागर परेशान थे।

     इस अत्यन्त कठिन और असम्भव लग रहे कार्य को सागर ने अपनी भक्ति और आध्यात्मिक शक्ति की बदौलत पूरा किया। यह कार्य किस प्रकार सम्पूर्ण हुआ, आगे पढ़िये.....

     शूटिंग-यूनिट के सौ से अधिक सदस्य और स्टूडियो के लोग कौए को पकड़ने में घंटों लगे रहे। पूरे दिन की कड़ी मेहनत के बाद वे चार कौओं को जाल में फँसाने में सफल हुए। चारों को चेन से बाँध दिया गया; ताकि वे अगले दिन की शूट से पहले रात में उड़ न जाएँ। सुबह तक केवल एक ही बचा था और वह भी अल्युमीनियम की चेन को अपनी पैनी चोंच से काटकर उड़ जाने के लिए संघर्ष कर रहा था।

     अगले दिन शॉट तैयार था। कमरे के बीच शिशु श्रीराम और उन के पास ही चेन से बँधा कौआ था। लाइट्स ऑन हो गयी थीं। रामानंद सागर शांति से प्रार्थना कर रहे थे, जबकि कौआ छूटने के लिए हो-हल्ला कर रहा था। वे उस भयभीत कौए के पास गए और काकभुशुण्डी के समक्ष हाथ जोड़ दिए। फिर आत्मा से याचना की “काकभुशुण्डीजी, रविवार को इस एपिसोड का प्रसारण होना है। मैं आप की शरण में आया हूँ, कृपया मेरी सहायता कीजिए।" 

     निस्तब्ध सन्नाटा छा गया, चंचल कौआ एकदम शांत हो गया ऐसा प्रतीत होता था, जैसे कि काकभुशुण्डी स्वयं पृथ्वी पर उस बंधक कौए के शरीर में आ गए हों। रामानंद सागर ने जोर से कहा, 'कैमरा' 'रोलिंग', कौए की चेन खोल दी गयी और १० मिनट तक कैमरा चालू रहा। रामानंद सागर निर्देश देते रहे, “काकभुशुंडीजी! शिशु राम के पास जाओ और रोटी छीन लो।” कौए ने निर्देशों का अक्षरश: पालन किया, काकभुशुण्डीजी ने रोटी छीनी और रोते हुए शिशु को वापस कर दी, उसे संशय से देखा, उस ने प्रत्येक प्रतिक्रिया दर्शायी और दस मिनट के चित्रांकन के पश्चात् उड़ गया। मैं इस दैविक घटना का साक्षी था।

     निस्संदेह वे काकभुशुण्डी (कागराज) ही थे, जो रामानंद सागर का मिशन पूरा करने के लिए पृथ्वी पर उस कौए के शरीर में आये थे। 

     जय श्रीराम! जय काकभुशुण्डी!

     साभार : 'रामानंद सागर के जीवन की अकथ कथाएँ' (पुस्तक), पृष्ठ संख्या २०० से।

बुधवार, 12 अक्तूबर 2022

मनुष्य की कीमत Man's Value



-शीतांशु कुमार सहाय 

     लोहे की दुकान में अपने पिता के साथ काम कर रहे एक बालक ने अचानक ही अपने पिता से  पूछा, “पिताजी इस दुनिया में मनुष्य की क्या कीमत होती है?”

     पिताजी एक छोटे से बच्चे से ऐसा गंभीर सवाल सुन कर हैरान रह गये। फिर वे बोले, “बेटे एक मनुष्य की कीमत आँकना बहुत मुश्किल है, वह तो अनमोल है।”

     "क्या सभी उतनी ही कीमती और महत्त्वपूर्ण हैं?" बालक ने फिर प्रश्न किया। 

     पिताजी ने कहा, "हाँ बेटा।"

     बालक कुछ समझा नहीं। उस ने फिर प्रश्न किया, "तो फिर इस दुनिया में कोई ग़रीब तो कोई अमीर क्यों है? किसी की कम इज्ज़त तो किसी की ज़्यादा क्यों होती है?"

     प्रश्न सुनकर पिताजी कुछ देर तक शान्त रहे और फिर बालक से स्टोर रूम में पड़ा एक लोहे का रॉड लाने को कहा।

     रॉड लाते ही पिताजी ने पूछा, "इस की क्या कीमत होगी?"

     बालक ने २०० रुपये कीमत बतायी। 

     पिताजी ने समझाते हुए कहा, "अगर मैं इस के बहुत-से छोटे-छोटे कील बना दूँ तो इस की क्या कीमत हो जायेगी?"

     बालक कुछ देर सोचकर बोला, "तब तो ये और महंगा बिकेगा लगभग 1000 रुपये में।

     पिताजी ने पुनः प्रश्नात्मक अन्दाज़ में बताया, "अगर मैं इस लोहे से घड़ी के बहुत सारे स्प्रिंग बना दूँ तो?"

     बालक कुछ देर गणना करता रहा और फिर एकदम से उत्साहित होकर बोला, ”तब तो इस की कीमत बहुत अधिक हो जायेगी।”

     फिर पिताजी उसे मर्म समझाया, “ठीक इसी तरह मनुष्य की कीमत इस में नही है कि अभी वह क्या है; बल्कि इस में है कि वह अपने आप को क्या बना सकता है।” बालक अपने पिता की बात समझ चुका था।

     ...तो अब आप भी समझिये.....

     अक्सर हम अपनी सही कीमत आँकने में ग़लती कर देते हैं। हम अपनी वर्तमान स्थिति को देखकर अपने आप को निरुपयोगी समझने लगते हैं लेकिन हम में हमेशा अथाह शक्ति होती है। हमारा जीवन हमेशा सम्भावनाओं से भरा होता है। हमारे जीवन में कई बार स्थितियाँ अच्छी नहीं होती हैं पर इस से हमारी कीमत कम नहीं होती है। मनुष्य के रूप में हमारा जन्म इस दुनिया में हुआ है, इस का मतलब है कि हम बहुत विशेष और महत्त्वपूर्ण हैं। हमें हमेशा अपने आप में सुधार करते रहना चाहिये और अपनी सही कीमत प्राप्त करने की दिशा में बढ़ते रहना चाहिये।


शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2022

अद्भुत शक्तिशाली थे जामवन्त Jamwant was Amazingly Powerful

प्रस्तोता : शीतांशु कुमार सहाय 

     जामवन्त सतयुग, त्रेतायुग और द्वापर युग में भी रहे लेकिन वे सर्वाधिक चर्चित त्रेतायुग में रहे जब भगवान श्रीराम की सेवा का पुण्य कार्य उन्होंने किया। वे अतुलनीय बलशाली थे। एक शाप के कारण वे बूढ़े दीखने लगे और उन के बल में कमी आयी। उस शाप के बारे में भी आप इसी आलेख में जानेंगे। पहले उन के बल के सन्दर्भ में थोड़ी चर्चा कर लेते हैं, जैसा ग्रन्थों में उल्लेख है। 

     वास्तव में जामवन्त रामायण के एक ऐसे पात्र हैं जिन के विषय में बहुत विस्तार से नहीं लिखा गया है। हालाँकि रामायण में ही उन के विषय में केवल एक-दो बातें ऐसी बतायी गयी हैं जिन से उन के बल के बारे में अनुमान लगा सकते हैं।

      पहली बात तो जामवन्त सतयुग के व्यक्ति थे। अब सतयुग में निःसन्देह योद्धा अन्य युगों की अपेक्षा बहुत अधिक शक्तिशाली होते थे। उन की उत्पत्ति सीधा ब्रह्माजी से बतायी गयी है। अब परमपिता ब्रह्मा से जो जन्मा हो उस की शक्ति के बारे में तो केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है।

      रामचरितमानस में उन के पराक्रम के बारे में दो घटना विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उन दोनों स्थानों पर जामवन्त का युद्ध रावण और मेघनाद के साथ हुआ था। इन दोनों को जामवन्त ने अपने पाद प्रहार से मूर्छित कर दिया था। मेघनाद की शक्ति तो उन्होंने अपने हाथों से ही पकड़ कर पलट दी थी। अत्यन्त वृद्धावस्था में भी जो रावण और मेघनाद जैसे योद्धाओं को अपने घात से मूर्छित कर दे, जरा सोचिये युवावस्था में उस का बल क्या होगा!

      जब द्वापर युग आया तो जामवन्त और अधिक बूढ़े हो गये। उस समय उन का युद्ध श्रीकृष्ण से हुआ था। जमवन्त को परास्त करने के लिए श्रीकृष्ण को उन से एक-दो नहीं; बल्कि २८ दिनों तक युद्ध करना पड़ा। स्वयं परमेश्वर कृष्ण को जिसे परास्त करने में अट्ठाइस दिन लग गये हों, वो भी वृद्धावस्था में, जवानी में उन के बल के बारे में हम केवल अनुमान ही लगा सकते हैं।

      जब सीता माता को खोजने के लिए समुद्र लाँघने की बात चल रही थी, उस समय जामवन्त कहते हैं-- "मैं तो अब बहुत बूढ़ा हो गया हूँ, फिर भी इस समुद्र में मैं नब्बे योजन तक जा सकता हूँ।" हनुमान जी अपनी युवावस्था में १०० योजन छलाँग गये, जामवन्त की आयु उस समय छः मन्वन्तर की बतायी गयी है। एक मन्वन्तर तीस करोड़ सड़सठ लाख बीस हजार वर्षों का होता है और इस से छः गुना अधिक उम्र का व्यक्ति समुद्र में ९० योजन तक जाने की क्षमता रखता था। इसी से उन के बल का पता चलता है।

      इस वार्तालाप के दौरान उन्होंने युवावस्था में अपने बल के बारे में दो बातें बतायीं जिन्हें ध्यान से सुनना आवश्यक है। इस से जामवन्त की वास्तविक शक्ति का पता चलेगा।

      पहली घटना तब की है जब समुद्र मन्थन चल रहा था जिसे देवता और दैत्य मिलकर बड़ी मुश्किल से कर पा रहे थे। उस समय जामवन्त ने अपनी जवानी के जोश में एक बार अकेले ही सम्पूर्ण मन्दराचल पर्वत को घुमा दिया था। मन्दराचल को अकेले घुमाने के लिए कितनी शक्ति चाहिए होगी, क्या आप अनुमान भी लगा सकते हैं? 

      दूसरी घटना भगवान विष्णु के वामन अवतार की है। जब श्रीहरि ने विराट स्वरुप लिया और एक पैर से स्वर्ग को माप लिया। फिर जब उन्होंने अपना पैर पृथ्वी को मापने के लिए उठाया, उस दौरान जामवंत ने केवल सात पल में पृथ्वी की सात परिक्रमा कर ली थी। जरा सोचिये, महावीर हनुमान एक ही रात में लंका से सैकड़ों योजन दूर से पर्वत शिखर उखाड़ कर ले आये लेकिन जामवन्त ने केवल सात पल में पृथ्वी की सात परिक्रमा कर ली थी। एक पल लगभग चौबीस सेकेण्ड का होता है। क्या आप उन की गति का अनुमान लगा सकते हैं?

      महाबलशाली जामवन्त के बल का ऐसा वर्णन सुनकर जब अंगद उन से पूछते हैं कि उन का बल क्षीण कैसे हुआ? तब वे बताते हैं कि जब वे पृथ्वी की परिक्रमा कर रहे थे तो अन्तिम परिक्रमा के समय उन के पैर के अँगूठे का नाख़ून महामेरु पर्वत से छू गया, जिस से उस का शिखर खण्डित हो गया। इसे अपना अपमान मानते हुए मेरु ने जामवन्त को ये शाप दे दिया कि वह सदा के लिए बूढ़े हो जायेंगे और उन का बल क्षीण हो जायेगा।

      प्रत्याशा है कि आप को जामवन्त की शक्ति का कुछ अनुमान लग गया होगा। पर, इतने शक्तिशाली होने के बाद भी उन में लेश मात्र भी घमण्ड नहीं था। 

      जय श्रीराम!

बुधवार, 5 अक्तूबर 2022

समयसूचक AM और PM का उद्गम स्थल भारत Origin of Timeline AM & PM

-शीतांशु कुमार सहाय

   भारतीय ज्ञान की तुलना किसी से नहीं। अतुलनीय भारतीय ज्ञान-विज्ञान और सिद्धांत को कई विदेशियों ने अपने नाम से प्रचारित किया। विदेशियों के इन झूठे कारनामों को आज लोग सच मान रहे हैं। अफसोस की बात है कि भारत में भी वही झूठ प्रचारित है। यहाँ तक कि भारतीय पाठ्यपुस्तकों में भी वही झूठ पढ़ाया जा रहा है। पर, अब धीरे-धीरे सच्चाई सामने आने लगी है। ऐसे ही एक सच के बारे में इस आलेख में जानिये।

      भारतीय पुस्तकों में यह उल्लेख मिलता है कि समय सूचक शब्द AM और PM विदेशियों की देन है, अँग्रेज वैज्ञानिकों की देन है। साथ ही इस का Full form भी ग़लत बताया गया-

      AM : एंटी मेरिडियन (Ante Meridian)

      PM : पोस्ट मेरिडियन (Post Meridian)

      एंटी मतलब पहले, लेकिन किस आकाशीय पिण्ड के? पोस्ट मतलब बाद में, लेकिन किस के? यह कभी स्पष्ट नहीं किया गया; क्योंकि ये भारतीय ग्रन्थों से चुराये गये शब्दों के लघुतम रूप हैं।

    भारतीय ऋषियों-मुनियों के पास असीम ज्ञान-भण्डार था। उन्होंने पृथ्वी पर समय की गणना सूर्य और चन्द्र की गति के आधार पर की। समय की उसी भारतीय गणना प्रणाली को ही आज भी पूरा विश्व अनुसरण कर रहा है। समय गणना में दोपहर से पहले के समय को पूर्वाह्न और दोपहर के बाद के समय को अपराह्न कहा गया है। पूर्वाह्न में सूर्य (मार्तण्ड) पूर्व में उदित होकर आकाश में ऊपर की ओर चढ़ता (आरोहण) हुआ दिखायी देता है। इस के विपरीत अपराह्न में सूर्य पश्चिम की ओर ढलता (पतन) हुआ अर्थात् नीचे आता हुआ दीखता है। 

      अब भारतीय ऋषियों के ज्ञान को देखिये कि उन के संस्कृत ज्ञान पर किस प्रकार हल्की फेर-बदल कर अपने नाम की मुहर चिपका दी--

AM = आरोहणम् मार्तण्डस्य 

(Aarohanam Martandasya)

PM = पतनम् मार्तण्डस्य 

(Patanam Martandasya)

     पूर्वाह्न में सूर्य का चढ़ना अर्थात् संस्कृत में होता है आरोहणं मार्तण्डस्य Arohanam Martandasya और अपराह्न में सूर्य का ढलना मतलब संस्कृत में पतनं मार्तण्डस्य Patanam Martandasya होता है।


रविवार, 25 सितंबर 2022

वृन्दावन के राधा रमन मन्दिर में श्रीकृष्ण की भक्ति में ४६ वर्षों से साधनारत भक्तिन In The Radha Raman Temple of Vrindavan, The Devotee Engaged in Devotion to Shri Krishna For 46 Years

प्रस्तोता : शीतांशु कुमार सहाय 

        चित्र में जो बुजुर्ग महिला बैठी हुई है। इन का दर्शन करना भी बड़े सौभाग्य की बात है क्योंकि यह पिछले ४६ सालों से राधा रमन जी के प्रांगण में ही बैठी रहती हैं। कभी राधा रमन जी की गलियों और राधा रमन जी का मंदिर छोड़कर इधर-उधर वृंदावन में कहीं नहीं गयीं। 

     इन बुजुर्ग महिला की उमर ८१ साल हो चुकी है। जब यह ३५ साल की थीं। तब यह  जगन्नाथ पुरी से चलकर अकेली वृंदावन आयी थीं। वृंदावन पहुँचकर इन्होंने किसी बृजवासी से वृंदावन का रास्ता पूछा। उस ब्रजवासी ने इन को राधा रमन जी का मंदिर दिखा दिया। 

      आज से ४६ साल पहले कल्पना कीजिए वृंदावन कैसा होगा? वह अकेली जवान औरत सब कुछ छोड़ कर केवल भगवान के भरोसे वृंदावन आ गयीं। किसी बृजवासी ने जब इन को राधा रमन जी का मंदिर दिखाकर यह कह दिया कि यही वृंदावन है। तब से लेकर आज तक इन को ४६ वर्ष हो गये, यह राधा रमन जी का मंदिर छोड़कर कहीं नहीं गयीं। यह मंदिर के प्रांगण में बैठकर ४६ साल से श्रीकृष्ण की साधना में रत हैं और भजन गाती है। मंगला आरती के दर्शन करती हैं। कभी-कभी गोपी गीत गाती हैं। 

      जब इन को कोई भक्त यह कहता है कि माताजी वृंदावन घूम आओ, तो वह कहती है, मैं कैसे जाऊँ? लोग बोलते हैं। जब मुझे किसी बृजवासी ने यह बोल दिया कि यही वृंदावन है, तो मेरे बिहारीजी तो मुझे यहीं मिलेंगे। मेरे लिए तो सारा वृंदावन इसी राधा रमन मंदिर में ही है। 

      देखिए प्रेम और समर्पण की कैसी पराकाष्ठा है। आज के दौर में संत हो या आम जन- सब धन, रिश्ते- नातों के पीछे भाग रहे हैं तो आज भी संसार में ऐसे दुर्लभ भक्त हैं जो केवल और केवल भगवान के पीछे भागते हैं। 

     वह देखने में बहुत निर्धन हैं पर उन का परम धन इनके भगवान "राधा रमन" जी हैं। 

      हम संसार के लोग थोड़ी-सी भक्ति करते हैं और अपने आप को भक्त समझ बैठते हैं। कभी थोड़ी भी परेशानी आयी नहीं कि भगवान को कोसने लगते हैं। भगवान को छोड़कर किसी अन्य देवी-देवता की पूजा करने लग जाते हैं। हमारे अंदर समर्पण तो है ही नहीं। आज संसार के अधिकतर लोग अपनी परेशानियों से परेशान होकर कभी एक बाबा से दूसरे बाबा पर दूसरे बाबा से तीसरे बाबा पर भाग रहे हैं। और-तो-और हमारा न अपने गुरु पर विश्वास है, न किसी एक देवता को अपना इष्ट मानते हैं।  अधिकतर लोग भगवान को अगर प्यार भी करते हैं तो किसी-न-किसी भौतिक आवश्यकता के लिए। पर, इन दुर्लभ संत योगिनी को देखिये.....वह सब कुछ त्याग कर केवल भगवान के भरोसे ४६ साल से राधा रमन जी के प्रांगण में बैठी हैं, उन की साधना में लीन हैं। 

      भगवान श्रीकृष्ण की इस महान भक्तिन के श्रीचरणों में मेरा कोटि-कोटि प्रणाण!

      जय श्री राधे कृष्ण!

गुरुवार, 8 सितंबर 2022

पितृपक्ष में इन वस्तुओं को न खाएँ अन्यथा पितर हो जायेंगे रुष्ट Do Not Eat These Things During Pitru Paksha Otherwise The Ancestors Will Get Angry

 


-शीतांशु कुमार सहाय 

     सनातन धर्म में पितृपक्ष का विशेष महत्त्व है। आश्विन महीने में कृष्ण पक्ष प्रथमा अर्थात् प्रतिपदा से आश्विन कृष्ण पक्ष अमावस्या तक की अवधि को पितृपक्ष कहा जाता है। माँ, पिता या घर के अन्य सदस्यों की जिस तिथि को देहान्त होता है, प्रथमा से उस तिथि तक उन्हें पितर रूप मानकर जल तर्पण करने का विधान है। 

     पितृपक्ष में पितरों को तर्पण, पिण्डदान और श्राद्ध करने से उन की आत्मा को शान्ति मिलती है। बदले में पितर प्रसन्न होकर अपने वंशजों को सुख-समृद्धि और प्रगति का आशीर्वाद देते हैं।

क्या खाएँ, क्या न खाएँ...

     शास्त्र विधि के अनुसार, पितृपक्ष में चना और चने से बने पदार्थ जैसे- चने की दाल, बेसन और चने से बने सत्तू नहीं खाना चाहिए। पितृ पक्ष अर्थात् श्राद्ध पक्ष में चना वर्जित है। इस दौरान चने का उपयोग अशुभ माना जाता है। अरहर, मूँग और उड़द का उपयोग किया जा सकता है। 

     पितृ पक्ष में श्राद्ध के दौरान कच्चे अनाज का सेवन नहीं करना चाहिए। पितृ पक्ष में मसूर की दाल का सेवन नहीं करना चाहिए। साथ ही इस अवधि में दाल, चावल, गेहूँ जैसे अनाज को कच्चा सेवन करना वर्जित है। हाँ, इन्हें उबालकर खाया जा सकता है। पर, मसूर की दाल को किसी भी रूप में श्राद्ध के दौरान प्रयोग न करें। 

     पितृ पक्ष में लहसुन और प्याज का सेवन नहीं करना चाहिए। लहसुन और प्याज को तामसिक भोजन की श्रेणी में रखा गया है। पितृ पक्ष में लहसुन या प्याज के सेवन से पितृ रुष्ट होते हैं और घर की प्रगति पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

     पितृपक्ष में कुछ सब्जियों के सेवन से बचना चाहिए। इस अवधि में आलू, मूली, अरबी (अरूई व कन्दा) और कन्द वाली सब्जियों यानी जो भूमि के अन्दर उपजते हैं) का सेवन कदापि नहीं करना चाहिए। इन सब्जियों को श्राद्ध या पितृपक्ष में न स्वयं सेवन करें और न ब्राह्मणों या पुरोहितों को भोजन में अर्पित करें। 


बुधवार, 7 सितंबर 2022

सूने घर ताक रहे बच्चों की राह...अकेलेपन में बुजुर्गियत The Path of the Children Staring at the Deserted House...Old Age in Loneliness

 -शीतांशु कुमार सहाय 


     आप से मेरा निवेदन है कि कल सुबह उठकर एक बार इस का जायज़ा लीजियेगा कि कितने घरों में अगली पीढ़ी के बच्चे रह रहे हैं? कितने बाहर निकलकर दिल्ली, नोएडा, गुड़गाँव, पुणे, बेंगलुरु, चंडीगढ़, मुम्बई, कोलकाता, चेन्नई, हैदराबाद, बड़ौदा जैसे बड़े शहरों में और कुछ तो विदेश में जाकर बस गये हैं?
     कल आप एक बार उन गली-मोहल्लों से पैदल निकलियेगा जहाँ से आप बचपन में विद्यालय जाते समय दोस्तों के संग मस्ती करते हुए निकलते थे।
      जरा तिरछी नज़रों से झाँकियेगा हर घर की ओर, आप को एक चुप्पी...अजीब सन्नाटा मिलेगा; न कोई आवाज़, न बच्चों का शोर, बस किसी किसी घर के बाहर या खिड़की में आते-जाते लोग को ताकते बूढ़े ज़रूर मिल जायेंगे। आखिर इन सूने होते घरों और खाली होते मुहल्लों के कारण क्या  हैं?
     भौतिकवादी युग में हर व्यक्ति चाहता है कि उस का एक बच्चा और अधिक-से-अधिक दो बच्चे हों और बेहतर-से-बेहतर पढ़ें-लिखें। उन को लगता है या फिर दूसरे लोग उन को ऐसा महसूस कराने लगते हैं कि छोटे शहर या कस्बे में पढ़ने से उन के बच्चे का कॅरियर खराब हो जायेगा या फिर बच्चा बिगड़ जायेगा। बस, यहीं से बच्चे निकल जाते हैं या माँ-बाप द्वारा भेज दिये जाते हैं देश-विदेश के बड़े शहरों के छात्रावासों में।
     भले ही बड़े शहरों और उस छोटे शहर के विद्यालय में पाठ्यक्रम और किताबें समान हों मगर मानसिक दबाव आ जाता है...बड़े शहर में पढ़ने भेजने का!
     विचार कीजियेगा तो पता चलेगा कि बाहर भेजने पर भी मुश्किल से एक-दो प्रतिशत बच्चे ही IIT, PMT या CLAT वगैरह में निकाल पाते हैं! फिर वही माँ-बाप बाकी बच्चों का 'पेमेण्ट सीट' पर इंजीनियरिंग, मेडिकल या फिर बिज़नेस मैनेजमेंट में दाखिला कराते हैं। चार-पाँच साल बाहर पढ़ते-पढ़ते बच्चे बड़े शहरों के माहौल में रच बस जाते हैं। फिर वहीं नौकरी ढूंढ लेते हैं। सहपाठियों से शादी भी कर लेते हैं। आप को तो शादी के लिए हाँ करना ही है, अपनी इज्ज़त बचानी है तो, अन्यथा शादी वह करेंगे ही अपने इच्छित साथी से।
      सच तो यह है कि ऐसे बच्चे केवल त्योहारों पर घर आते हैं माँ-बाप के पास सिर्फ रस्म अदायगी हेतु। पर्व-त्योहारों की छुट्टी में घर आने पर आस-पड़ोस के कुछ 'छुट चुके' मित्रों पर बड़े शहर या विदेश (जहाँ वह फिलहाल रह रहा है) की 'भव्यता' का किस्सा गाँठकर फिर उसी शहरी भीड़ का हिस्सा बनने चल पड़ता है। आप ने अनुभव किया होगा, यही होता है नऽ।
     इधर, घर पर वीरानगी के साथ रहने को अभिशप्त माँ-बाप सभी को अपने बच्चों के बारे में गर्व से बताते हैं। किसी कम्पनी में नौकरी लगने पर दो-तीन साल तक तो पड़ोसियों को बेटा या बेटी के पैकेज के बारे में बताते हैं। एक साल, दो साल, कुछ साल बीत गये। माँ-बाप बूढ़े होते जा रहे हैं। अब वे अकेले नहीं रह सकते। सहारे की सख्त आवश्यकता आ पड़ी है लेकिन बच्चों ने ॠण लेकर बड़े शहरों में या विदेश में फ्लैट ले लिये हैं। नया घर, नये सपने, नया परिवार...अब पुराने घर में बुढ़ाते माँ-बाप की सेवा का 'जोखिम' उठाने कौन आता है! अब अपना फ्लैट हो ही गया तो त्योहारों पर भी घर जाना बन्द।
     अब तो कोई ज़रूरी शादी या किसी पारिवारिक समारोह में ही आते-जाते हैं ऐसे 'होनहार' बच्चे। अब शादी या अन्य पारिवारिक समारोह तो बैंक्वेट हाॅल में होते हैं तो मुहल्ले में और घर जाने की भी ज़्यादा ज़रूरत नहीं पड़ती है। होटल में ही रह लेते हैं। हाँ, एक बात और है कि हाॅल वाले शादी-छट्ठी के समारोह में अगर कोई मुहल्लेवाला पूछ भी ले कि भाई अब कम आते-जाते हो तो छोटे शहर, छोटे माहौल और बच्चों की पढ़ाई का उलाहना देकर बोल देते हैं कि अब यहाँ रखा ही क्या है? वाह!
     बेटे-बहू साथ-साथ फ्लैट में बड़े शहर में रहने लगे हैं। अब फ्लैट में तो इतनी जगह होती नहीं कि बूढ़े खाँसते बीमार माँ-बाप को साथ में रखा जाये। बेचारे पड़े रहते हैं अपने बनाये या पैतृक मकानों में।
     कोई बच्चा 'बागवान' फिल्म की तरह माँ-बाप को आधा-आधा रखने को भी तैयार नहीं। 
     अब साहब, घर खाली-खाली, मकान खाली-खाली और धीरे-धीरे मुहल्ला खाली हो रहा है। अब ऐसे में छोटे शहरों में कुकुरमुत्तों की तरह उग आये "प्रॉपर्टी डीलरों" की गिद्ध जैसी निगाह इन खाली होते मकानों पर पड़ती है। वो इन बच्चों को घूमा-फिराकर उन के मकान के रेट समझाने शुरू करते हैं। उन को गणित समझाते हैं कि कैसे घर बेचकर शहर में खरीदे फ्लैट का ऋण खत्म किया जा सकता है। यही नहीं, बचे पैसे से एक प्लाॅट भी लिया जा सकता है। साथ ही ये किसी बड़े निवेशक को इन खाली होते मकानों में मार्केट और गोदामों का सुनहरा भविष्य भी दिखाने लगते हैं। ये ज़मीन के दलाल बाबूजी और माताजी को भी बेटे-बहू के साथ बड़े शहर में रहकर आराम से मज़ा लेने के सपने दिखाकर मकान बेचने को तैयार कर लेते हैं।
      हर दूसरा घर, हर तीसरा परिवार सभी के बच्चे बाहर निकल गये हैं। बड़े शहर में मकान ले लिये हैं, बच्चे पढ़ रहे हैं, अब वो वापस नहीं आयेंगे। छोटे शहर में रखा ही क्या है! इंग्लिश मीडियम स्कूल नहीं है, हॉबी क्लासेज नहीं है, IIT/PMT की कोचिंग नहीं है, मॉल नहीं है, माहौल नहीं है, नाइट क्लब नहीं है...कुछ नहीं है भाई, आखिर इन के बिना जीवन कैसे चलेगा? 
     भाईसाहब! ये खाली होते मकान, ये सूने होते मुहल्ले, इन्हें सिर्फ प्राॅपर्टी की नज़र से मत देखिये, बल्कि जीवन की खोती हुई जीवन्तता की नज़र से देखिये। आप पड़ोसीविहीन हो रहे हैं। आप वीरान हो रहे हैं।
     आज गाँव सूने हो चुके हैं, शहर कराह रहे हैं।
सूने घर आज भी राह देखते हैं,
वो बंद दरवाजे बुलाते हैं
पर कोई नहीं आता!
     घर छोड़कर बड़े शहरों की भीड़ में गुम होते युवाओं से मैं पूछता हूँ कि कि क्या आप का बुढ़ापा सुगमता व्यतीत होगा या जैसा आप ने किया, वैसा ही आप की सन्तान भी करेगी। एक बार विचार अवश्य कीजियेगा और मन करे तो नीचे के कमेण्ट बाॅक्स में अपने उद्गार लिखियेगा।