बुधवार, 10 नवंबर 2010

महज साथ रहना ‘लिव इन’ नहीं (सुप्रीम कोर्ट ने तय किये गुजारा भत्ता पाने के लिए अहम मापदंड)

सुप्रीम कोर्ट ने 21 October 2010 को कहा है कि भले ही कोई मर्द, रखैल या दासी का उपभोग अपनी यौन इच्छाओं की पूर्ति के लिए करता है और साथ-साथ उसका भरण-पोषण भी करता हो, लेकिन इस तरह के संबंधों को लिव-इन रिलेशनशिप की मान्यता नहीं दी जा सकती। लम्बे समय तक एक साथ रह रहे महिला और पुरुष को उसी अवस्था में लिव-इन रिलेशनशिप की मान्यता दी जा सकती है जब वह समाज के सामने अपने आपको पति-पत्‍नी के रूप में पेश करते हों, भले ही वह विवाह के पवित्र बंधन में बंधे हो। सप्ताहांत या सिर्फ कुछ क्षणों के लिए बिताए गए अंतरंग पल (वन नाइट स्टैड) लिव-इन रिलेशनशिप नहीं है और इस तरह के रिश्तों के दौर से गुजरने वाली महिला को गुजारा भत्ता नहीं दिया जा सकता। लिव-इन रिलेशनशिप पर जस्टिस मार्कन्डेय काटजू की नवीनतम व्याख्या निश्चित रूप से नए विवाद को जन्म दे सकती है। नारीवादी संगठन सुप्रीम कोर्ट के इस व्याख्या से शायद ही सहमत नजर आएं। सुप्रीम कोर्ट की इस व्याख्या को अगर व्यावहारिक रूप से अमल में लाया गया तो पीड़ित महिलाओं का एक बहुत बड़ा वर्ग घरेलू हिंसा कानून में दी गई लिव-इन रिलेशनशिप की मूल भावना की परिधि से बाहर हो जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि घरेलू हिंसा अधिनियम में लिव-इन रिलेशन शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया है बल्कि वैवाहिक जीवन की तरह साथ रहने वाले स्त्री-पुरुष को घरेलू संबंध के दायरे में बताया है। इसलिए लिव-इन रिलेशनशिप को परिभाषित करने की जरूरत है। हालांकि घरेलू हिंसा अधिनियम को लागू हुए पांच साल हो गए है और इस तरह के मामले अदालतों में लगातार रहे है, इसलिए लिव-इन रिलेशनशिप की व्याख्या की सख्त जरूरत है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि लिव-इन रिलेशनशिप की शर्त पूरी करने के लिए चार आवश्यकताएं जरूरी है। युगल जोड़ा समाज में पति-पत्‍नी के रूप में रह रहा हो। वे शादी के लिए निर्धारित उम््रा के हो और विवाह भले ही किया हो पर विवाह के लिए निर्धारित योग्यता रखते हो। वह स्वेच्छा से साथ साथ रह रहे हो और लम्बे समय तक इस तरह रहे हो जैसे पति-पत्‍नी रहते है। यह चार शर्ते पूरी करने पर ही महिला को घरेलू हिंसा संरक्षण अधिनियम, 2005 के तहत लिव-इन रिलेशन का दर्जा दिया जा सकता है। इसके साथ एक और शर्त पहले से ही अधिनियम में तय है- स्त्री-पुरुष एक की छत के नीचे रहे हों। सप्ताह के अंत में या एक रात के लिए बनाए गए संबंधों को घरेलू रिश्ते के दायरे में नहीं लाया जा सकता। अदालत ने स्पष्ट किया कि इस कानून का लाभ उठाने के लिए लिव-इन रिलेशन रखने वालों का व्यवहार शादीशुदा जोड़े के समान होना जरूरी है, भले ही वे विवाह की वैध रीति-रिवाज का पालन करते हो। जस्टिस मार्कन्डेय काटजू और तीरथ सिंह ठाकुर की बेंच ने कहाकि हमारी राय से महिलाओं का एक बड़ा वर्ग घरेलू हिंसा एक्ट के लाभ से वंचित हो जाएगा लेकिन कानून बनाना संसद का काम है। अगर संसद ने लिव-इन रिलेशनशिप शब्द का इस्तेमाल नहीं किया है और इसके बजाएवैवाहिक जोड़े की भांति रिश्ते शब्द का उपयोग किया है तो अदालत अपने अंदाज से उसकी व्याख्या नहीं कर सकती। व्याख्या की आड़ में अदालत कानून की भाषा में तब्दीली नहीं कर सकती। बेंच ने कहाकि घरेलू हिंसा अधिनियम तेजी से बदलते भारतीय समाज की झलक पेश करता है। इसलिए पत्‍नी को दिए जाने वाले गुजारा भत्ते के कानून को इस नए अधिनियम के आलोक में देखने की जरूरत है। सीआरपीसी की धारा- 125 के तहत सिर्फ वैध पत्‍नी को ही गुजारा भत्ता मिलता है लेकिन घरेलू हिंसा अधिनियम में लिव-इन रिलेशनशिप के तहत बिना शादी के साथ रह रही महिला को भी गुजारा भत्ता देने का प्रावधान है। शादी टूटने के डर से दहेज देना जुर्म नहीं नई दिल्ली (एसएनबी) हाईकोर्ट ने अपने एक महत्वपूर्ण आदेश में सामाजिक परिस्थितियों के मद्देनजर कहा है कि कन्या पक्ष यदि शादी टूटने दबाव के चलते दहेज देता है तो वह अपराध की श्रेणी में नहीं आता है। पीठ ने निचली अदालत के उस आदेश को खारिज कर दिया जिसमें दुल्हन उसके परिजनों के खिलाफ दहेज देने के अपराध में थाना रूप नगर में रपट दर्ज की गयी थी। पीठ के समक्ष दुल्हन उसके माता-पिता ने निचली अदालत के आदेश पर अपने खिलाफ दर्ज आपराधिक मामला खारिज करने की मांग की थी।
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