मंगलवार, 20 मार्च 2012

मुलायम को संभालनी चाहिये तीसरे मोर्चे का कमान

शीतांशु कुमार सहाय
  मुलायम सिंह ने बेटे अखिलेश यादव को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाकर तीसरे मोर्चे के तिकड़म के लिये अपने को स्वतंत्र रखा है। यही कारण है कि मुलायम के इर्द-गिर्द तीसरे मोर्चे का कठोर आवरण आरंभिक रूप को प्राप्त करता जा रहा है। ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, नीतीश कुमार, जयललिता, रामविलास पासवान और चंद्रबाबू नायडू एक नए क्षत्रप बनाम तीसरा मोर्चे के नीचे आने को तैयार बैठे हैं।
पांच राज्यों में सम्पन्न विधानसभा चुनाव परिणामों की पृष्ठभूमि में तीसरे मोर्चे की आहट सुनाई देने लगी है। मुलायम सिंह ने बेटे अखिलेश यादव को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाकर तीसरे मोर्चे के तिकड़म के लिये अपने को स्वतंत्र रखा है। यही कारण है कि मुलायम के इर्द-गिर्द तीसरे मोर्चे का कठोर आवरण आरंभिक रूप को प्राप्त करता जा रहा है। राजनीतिक परिक्रमण तेजी से जारी है और इसके केंद्र में नजर आ रहे हैं उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पिता। मुलायमसिंह यदि समय के बदलाव की आहट को सुन पा रहे हैं तो उन्हें तीसरे मोर्चे की घुरी की कमान संभाल लेनी चाहिए।
वास्तव में उत्तर प्रदेश के जनादेश ने केंद्रीय राजनीति में भूचाल ला दिया है। इस राजनीतिक भूचाल में कांग्रेस और भाजपा दोनों की नीतियां हिचकोले खा रही हैं। वैसे कांग्रेस की आर्थिक उदारवाद की महंगाई बढ़ाऊ नीतियों से जनता तो पहले से ही खफा है, अब उद्योगपतियों की नजर में भी केंद्र सरकार की आर्थिक नीतियां हाशिये पर हैं। इन नीतियों को पांच राज्यों में जनता ने नकारते हुए अपना जनादेश दिया।
यह जनादेश जाति और धर्म की राजनीति से ऊपर है। साथ ही इसने कांग्रेस की छद्म धर्मनिरपेक्षता और भाजपा की धार्मिक कट्टरता को भी आईना दिखाया है। भ्रष्ट आचरण के साथ मायावती जिस सामाजिक यांत्रिकी के बूते बसपा को अखिल भारतीय आधार देना चाहती थीं, उसके आकार को लघु करके मतदाता ने स्पष्ट संकेत दिया है कि राजनीतिक प्रवृत्तियों में अतिवाद अब जनता बर्दाश्त नहीं करेगी। जनता या यों कहें कि मतदाताओं की यह जागरूकता भारतीय लोकतंत्र को पुख्ता व परिपक्व बनाने वाली है। परिणामों के तत्काल बाद तृणमूल कांग्रेस ने मध्यावधि चुनाव की जरुरत बताकर केंद्रीय सरकार को डगमगा दिया।
नतीजों ने केंद्र में अनिश्चय के अंधकार को गहरा दिया है। कांग्रेस और भाजपा की नीतियां लगभग एक जैसी हैं। दोनों की वर्तमान असलियत को सबने चुनावी माहौल में देख लिया। यों अबतक  आतंकवादी निरोधी खुफिया केंद्र (एनसीटीसी) का विरोध कर रही भाजपा ने इसे 19 मार्च को लोकसभा व 20 मार्च को राज्यसभा में पारित होने दिया जबकि राज्यसभा में विपक्ष बहुमत में है। राज्यसभा में 20 मार्च को आतंकवादी निरोधी खुफिया केंद्र (एनसीटीसी) पर भारतीय जनता पार्टी का संशोधन प्रस्ताव गिर गया। प्रस्ताव के पक्ष में 77 मत पड़े जबकि विरोध में 99 मत पड़े। 
बात बसपा की करें तो पूरे पांच सालों तक काम करने का सुनहरा मौका मिलने के बावजूद बसपा ने दबंगों को लुभाने के लिये उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति व जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम में आने वाले 22 प्रकार के अपराधों को संज्ञान में लेने वाले मामलों को हत्या और बलात्कार तक ही सीमित कर दिया था। उत्तरप्रदेश में भूमि अधिग्रहण का सिलसिला भी सुनियोजित और चरणबद्ध तरीके से जारी था। चिकित्सा और तकनीकी संस्थानों में प्रवेश पाने वाले दलित छात्रों का जातीय और अंग्रेजी में दक्ष न होने के आधार पर इस हद तक उत्पीड़न जारी रहा कि अबतक 18 छात्र आत्महत्या कर चुके हैं। ऐसे में यदि कहा जा रहा है कि मायावती का दलित वोट बैंक भी खिसका है, तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं।
जनता के बुनियादी हितों और घोषणा-पत्र में किये वायदों से आंख चुराने के कारण ही मतदाता ने कांग्रेस, भाजपा और बसपा से मोहभंग होने की तसदीक कर दी। वैसे उत्तर प्रदेश की सत्ता पर काबिज होने के बाद मायावती दलित हितों की रक्षा व सर्वजन के नारे के बूते दिल्ली की गद्दी हथियाने की दौड़ में लग गई थीं। मायावती का यह स्वप्न तो चकनाचूर हुआ ही, बहुजन समाज पार्टी को अखिल भारतीय आधार देने के मंसूबे भी धराशायी हो गए।
भाजपा को यदि गोवा, उत्तराखण्ड और पंजाब में नाक बचाने की खातिर बढ़त मिल भी गई तो वह उसके राष्टÑीय वजूद रखने वाले नेताओं की बजाए क्षेत्रीय नेताओं और स्थानीय मुद्दों के कारण मिली है। उत्तर प्रदेश में बाबूसिंह कुशवाहा को शरण देकर भाजपा ने भी मनमोहन सिंह और मायावती की राह पकड़ ली। मणिपुर जरूर इस दृष्टि से अपवाद रहा कि वहां स्थानीय मुद्दे निष्प्रभावी रहे। यह राज्य पिछले दो दशकों से भी ज्यादा समय से उग्रवाद व अलगाववाद की चपेट में है। राज्य की भौगोलिक अखण्डता को क्षेत्रीय मुद्दे व आंदोलन चुनौती साबित हो रहे हैं। विशेष सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून को हटाने की मांग को लेकर इस्पाती महिला इरोम शर्मिला पिछले 11 सालों से लगातार अनशन जारी रखी हुई हैं। उनकी इस मांग को व्यापक जनसमर्थन भी हासिल है। बावजूद इसके कोई करिश्मा  नहीं हुआ, यह अचरज में डालने वाला सवाल है। मणिपुर में कुकी बहुल क्षेत्र को नया जिला बनाने की मांग भी पिछले दिनों इतनी जबर्दस्त थी कि कुकी और नगा संगठनों ने इस पूरे पर्वतीय राज्य में मजबूत नाकेबंदी कर दी थी। इन परिस्थितियों के बाद भी कांग्रेस की मणिपुर में लगातार तीसरी बार जीत यह दर्शाती है कि व्यापक जनाधार वहां कांग्रेस का ही है। ऐसी ही स्थिति पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों मेघालय, त्रिपुरा, मिजोरम और सिकिकम में है।
दरअसल, पांच राज्यों के करीब 14 करोड़ मतदाताओं ने 690 विधानसभा सीटों पर अपने मताधिकार का प्रयोग करके जो निर्णय दिया है, उससे यही स्वर निकल रहा है कि राष्टÑीय दलों का हृदयविदारक क्षरण हो रहा है। जो कांग्रेस राहुल गांधी बनाम देश के भावी प्रधानमंत्री को लेकर उत्तरप्रदेश में करो या मरो की स्थिति में थी, वह मुंह   छिपाने की शर्मनाक हालत में है। उसके सांप्रदायिक हथकण्डों व निर्लज्ज चाटुकारिता को जनता ने नकार दिया है।
उत्तर प्रदेश में विश्वनाथ प्रताप सिंह के कार्यकाल में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद पिछड़ी व दलित जातियों में जो राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएं जगी थीं, उनका अभी लोप नहीं हुआ है। राष्टÑीय दलों के वंशवादी अहंकार को वे अभी भी कठिन चुनौती साबित हो रही हैं। नतीजतन राज्य-व्यवस्था ज्यादा-से-ज्यादा संघीय स्वरूप ग्रहण करने को व्याकुल है। इस परिप्रेक्ष्य में जहां नीतीश कुमार, ममता बनर्जी व जयललिता की तरह पंजाब में भी प्रकाश सिंह बादल को अपेक्षाकृत ज्यादा स्वायत्तता हासिल हो गई है। वे इस स्वतंत्र शासन में अपने राजनीतिक एजेंडे या घोषणा पत्र में शामिल वायदों को प्रभावी ढंग से लागू कर सकते हैं। मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी को तो मतदाता ने पूर्ण बहुमत देकर ही विधानसभा में भेजा है।
संप्रग गठबंधन में भागीदार तृणमूल कांग्रेस ने मध्यावधि चुनाव का जो संकेत ठीक चुनाव परिणामों के बाद दिया, वह निराधार नहीं है। क्षेत्रीय दलों की यह अपेक्षा बढ़ी है कि राष्टÑीय राजनीति में मुलायम सिंह महत्त्वपूर्ण भूमिका में अवतरित हों। ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, नीतीश कुमार, जयललिता, रामविलास पासवान और चंद्रबाबू नायडू एक नए क्षत्रप बनाम तीसरा मोर्चे के नीचे आने को तैयार बैठे हैं। लालू थोड़ा ना-नुकुर कर रहे हैं। इस संभावित तीसरे मोर्चे की पहली परीक्षा इसी साल जुलाई में होने वाले राष्टÑपति चुनाव में होने वाली है। यदि  क्षेत्रीय दल ऐन-केन-प्रकारेण अपना राष्टÑपति देश को देने में कामयाब हो जाते हैं तो इस मोर्चे के अस्तित्व की मान्यता तो प्रमाणित होगी ही, नए लोकसभा चुनाव पूर्व तीसरे मोर्चे का माहौल भी गर्माने लगेगा। तीसरे मोर्चे की सार्थकता तभी सिद्ध होगी जब यह तिकड़मी जातीय तिलिस्म व छद्म धर्मनिरपेक्षता के जंजाल में लिप्त दिखाई न दे। स्पष्ट विचारधारा व जनसरोकारों से जुड़े मुद्दों को लेकर वह जनता के बीच हाजिर हो।

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