सोमवार, 31 दिसंबर 2012

नया वर्ष 2013 मुबारक हो ! / एक वर्ष में कई नववर्ष


अनेकता में एकता की परंपरा को हमारा देश सहेज रहा है। यहां हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, जैन, पारसी के साथ अनेक धर्म और समुदायों के लोग अपनी-अपनी संस्कृति के अनुसार नया साल मनाते हैं। इन सबके अपने अलग-अलग त्योहार और रीति-रिवाज हैं। प्रत्येक समुदाय के नए वर्ष भी अलग-अलग हैं। इस दिन कई सांस्कृतिक आयोजन होते हैं, तरह-तरह के पकवान बनाए जाते हैं और एक-दूसरे को नववर्ष की शुभकामनाएं दी जाती हैं।

हिन्दू नववर्ष : सृष्टि का आरंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से हुआ था। इस हिसाब से चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (गुड़ी पड़वा) को नववर्ष मनाया जाना चाहिए। हिन्दू नववर्ष का प्रारंभ विक्रम संवत्‌ के अनुसार चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से होता है। इसी दिन से वासंती नवरात्र का भी प्रारंभ होता है। एक साल में 12 महीने और 7 दिन का सप्ताह विक्रम संवत्‌ से ही प्रारंभ हुआ है। वर्तमान में विक्रम संवत्‌ 2069 चल रहा है। विक्रम संवत्‌ पंचांग की गणना चांद के अनुसार होती है।

अंग्रेजी नववर्ष : यह अनेकता में एकता का नववर्ष है। यह एक ऐसा नया साल है जिसे सभी वर्गों-समुदायों द्वारा मान लिया गया है। अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार मनाया जाने वाला नया साल की शुरुआत 1 जनवरी से  होती है। 1 जनवरी से नए वर्ष 2013 का प्रारंभ हो गया है। आजकल इसी पंचांग को सर्वमान्य रूप से नए वर्ष की शुरुआत मान लिया गया है। सारे सरकारी कार्य और लेखा-जोखा इसी के अनुसार संचालित किए जाते हैं।

हिजरी संवत्‌ : मुस्लिम समुदाय में नया वर्ष मोहर्रम की पहली तारीख से मनाया जाता है। मुस्लिम पंचांग की गणना चांद के अनुसार होती है। हिजरी सन्‌ के नाम से जाना जाने वाला मुस्लिम नववर्ष अभी-अभी शुरू हुआ है। इस समय 1434 हिजरी चल रहा है।

पारसियों का नववर्ष : पारसियों द्वारा मनाए जाने वाले नववर्ष नवरोज का प्रारंभ 3 हजार साल पहले हुआ। नवरोज को जमशेदी नवरोज भी कहा जाता है। यह 19 अगस्त को मनाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि इसी दिन फारस के राजा जमशेद ने सिंहासन ग्रहण किया था। उसी दिन से इसे नवरोज कहा जाने लगा। राजा जमशेद ने ही पारसी कैलेंडर की स्थापना की थी।

जैन नववर्ष : जैन समुदाय का नया साल दीपावली के दिन से माना जाता है। इसे वीर निर्वाण संवत्‌ कहा जाता है। वर्तमान में 2539 वीर निर्वाण संवत्‌ चल रहा है।

महाराष्ट्रीयन नववर्ष : महाराष्ट्रीयन परिवारों में चैत्र माह की प्रतिपदा को ही नववर्ष की शुरुआत माना जाता है। इस दिन बांस में नई साड़ी पहनाकर उस पर तांबे या पीतल के लोटे को रखकर गुड़ी बनाई जाती है और उसकी पूजा की जाती है। गुड़ी को घर के बाहर लगाया जाता है और सुख-संपन्नता की कामना की जाती है।

मलयाली नववर्ष : मलयाली समाज में नया वर्ष ओणम से मनाया जाता है। ओणम मलयाली माह छिंगम यानी अगस्त और सितंबर के मध्य मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस दिन राजा बलि अपनी प्रजा से मिलने धरती पर आते हैं। राजा बलि के स्वागत के लिए घरों में फूलों की रंगोली सजाई जाती है और स्वादिष्ट पकवान बनाए जाते हैं।

तमिल नववर्ष : तमिल नववर्ष पोंगल से प्रारंभ होता है। पोंगल से ही तमिल माह की पहली तारीख मानी गई है। पोंगल प्रतिवर्ष 14-15 जनवरी को मनाया जाने वाला बड़ा त्योहार है। सूर्यदेव को जो प्रसाद अर्पित किया जाता है उसे पोंगल कहते हैं। 4 दिनों का यह त्योहार नई फसल आने की खुशी में मनाया जाता है।

पंजाबी नववर्ष : पंजाबी समुदाय अपना नववर्ष बैसाखी में मनाते हैं। यह त्योहार नई फसल आने की खुशी में मनाया जाता है। बैसाखी प्रतिवर्ष 13-14 अप्रैल को मनाई जाती है। गीत-संगीत की अनोखी परंपरा और खुशदिल लोगों से सजी है पंजाबियों की संस्कृति। बैसाखी के अवसर पर नए कपड़े पहने जाने के साथ ही भांगड़ा और गिद्दा करके खुशियां मनाई जाती हैं।

गुजराती नववर्ष : गुजराती बंधुओं का नववर्ष दीपावली के दूसरे दिन पड़ने वाली परीवा के दिन खुशी के साथ मनाया जाता है। गुजराती पंचांग भी विक्रम संवत्‌ पर आधारित है।

बंगाली नववर्ष : अपनी विशेष संस्कृति से पहचाने जाने वाले बंग समुदाय का नया वर्ष बैसाख की पहली तिथि को मनाया जाता है। बंगाली पंचांग के अनुसार, इस समय सन्‌ 1419 चल रहा है। यह पर्व नई फसल की कटाई और नया बही-खाता प्रारंभ करने के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। एक ओर व्यापारी लोग जहां नया बही-खाता बंगाली में कहें तो हाल-खाता करते हैं तो दूसरी तरफ अन्य लोग नई फसल के आने की खुशियां मनाते हैं।

शनिवार, 29 दिसंबर 2012

ग्रेगेरियन कैलेंडर में महीनों के नामकरण


वर्ष 1482 में पोप ग्रेगेरी ने ग्रेगेरियन कैलेंडर बनाया था. यह कैलेंडर पांच सौ साल से भी ज्यादा पुराना है. अपनी सरलता की वजह से इसे यूनिवर्सल कैलेंडर बनाया गया. इसे सिविल कैलेंडर या इंटरनेशनल कैलेंडर भी कहा जाता है. इसकी तारीख सूर्य की गति के हिसाब से तय होती है. यह जूलियन कैलेंडर का सुधरा हुआ रूप है, जिसे रोम के शासक जूलियस सीजर ने बनाया था. जूलियन कैलेंडर में हर 128 साल के बाद एक दिन का हेर-फेर हो जाता था, जिसे ग्रेगेरियन में दूर किया गया. ग्रेगेरियन को लगभग सभी देशों में मान्यता दी गयी है. इस कैलेंडर को सबसे पहले इटली ने अपनाया. इसके बाद धीरे-धीरे दूसरे देशों ने अपना लिया और अब पूरी दुनिया इसे ही मानती है.

जनवरी

रोमन देवता जेनस के नाम पर वर्ष के पहले महीने जनवरी का नामकरण हुआ. मान्यता है कि जेनस के दो चेहरे हैं एक से वह आगे तथा दूसरे से वह पीछे देखते थे. ठीक उसी तरह जनवरी महीने के भी दो चेहरे हैं एक से वह बीते वर्ष को देखता है तथा दूसरे से वह अगले वर्ष को देखता है. जेनस को लैटिन में जैनअरिस कहा गया है, जेनस बाद में जेनुअरी बना जो हिंदी में जनवरी हो गया.

फरवरी

इस महीने का संबंध लैटिन के फैबरा से है. इसका अर्थ है शुद्धि की दावत. पहले इसी माह में 15 तारीख को शुिद्ध का दावत दिया करते थे. कुछ लोग फरवरी माह का संबंध रोम की एक देवी फैबरूएरिया से भी मानते थे.

मार्च

रोमन देवता मार्स के नाम पर मार्च महीने का नामकरण हुआ. रोमन वर्ष का प्रारंभ इसी महीने से होता है. मार्स मार्टिअस का अपभ्रंश है, जो आगे बढ.ने की प्रेरणा देता है. सर्दी समाप्त होने पर शत्रु देश पर आक्रमण करत थ,े इसलिए इस महीने का नाम मार्च पड़ा.

अप्रैल

इस महीने की उत्पत्ति लैटिन शब्द एस्पेरायर से हुई इसका अर्थ है खुलना. रोम में इसी माह कलियां खिल कर फूल बनती थीं अर्थात बसंत का आगमन होता था इसलिए इस महीने का नाम प्रारंभ में एप्रिलिस रखा गया.

मई

रोमन देवता मरकरी की माता मइया के नाम पर मई माह का नामकरण हुआ. मई का तात्पर्य ब.डे बुजुर्ग रईस हैं. मई माह की उत्पत्ति लैटिन की मेजोरस से भी मानी जाती है.

जून

इस महीने में लोग शादी करके घर बसाते थे इसलिए परिवार के लिए उपयोग होने वाले लैटिन शब्द जेन्स के आधार पर जून का नामकरण हुआ.

जुलाई

राजा जूलियस सीजर का जन्म और मृत्यु दोनों जुलाई में ही हुआ इसलिए इस महीने का नाम जुलाई रखा गया.

अगस्त

जूलियस सीजर के भतीजे अगस्टस सीजर ने अपने नाम को अमर बनाने के लिए सेक्सटिलिस का नाम बदल कर अगस्टस कर दिया जो बाद में केवल अगस्त हो गया.

सितंबर 

रोम में सितंबर को सैप्टेंबर कहा गया है. सैप्टेंबर में सैप्टे लैटिन शब्द है, जिसका अर्थ है सात एवं बर का अर्थ है नौवां यानि सैप्टेंबर का अर्थ है सातवां जो बाद में नौंवा महीना बन गया.

अक्तूबर

इसे लैटिन आक्ट (आठ) के आधार पर अक्तूबर कहते हैं, किंतु दसवां महीना होने पर भी इसका नाम अक्तूबर ही चलता रहा.

नवंबर

नवंबर को लैटिन में नौवेम्बर यानी नौवां कहा गया. ग्यारहवां महीने बनने पर भी इसका नाम नहीं बदला और इसे नौवेम्बर कहा जाने लगा.

दिसंबर

इसी प्रकार लैटिन डेसेम के आधार पर दिसंबर महीने को डेसेंबर कहा गया. वर्ष का 12वां महीना बनने पर भी इसका नाम नहीं बदला.

सोमवार, 24 दिसंबर 2012

दिल्‍ली गैंगरेप के बाबत प्रधान मंत्री को अन्‍ना हजारे की चिट्ठी

समाजसेवी अन्‍ना हजारे ने दिल्‍ली में मेडिकल स्‍टूडेंट के साथ गैंगरेप की घटना और इसके बाद युवाओं में आक्रोश पर प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह को चिट्ठी लिखी है---
सेवा में,
श्रीमान डॉ. मनमोहन सिंह जी,
प्रधान मंत्री, भारत सरकार,
नई दिल्ली.
विषय- गैंगरेप- मानवता को कलंक लगानेवाली शर्मनाक घटना घटी और देश की जनता का जन आक्रोश गुस्सा बेकाबू होकर देश की जनता रास्ते पर उतर आयी, जनता का क्या दोष...?

महोदय,
गैंगरेप की शर्मनाक घटना से देश वासियों की गर्दन शर्म से झुक गयी। देश की जनता का गुस्सा बेकाबू हो कर देश की जनता रास्ते पर उतर आयी। कही दिनों से लगातार जनता का गुस्सा और आक्रोश बढता ही गया। खास तौर पर युवा शक्ती बडी संख्या में रास्ते पर उतर आयी। सामाजिक न्याय के लिए इतनी बडी संख्या में युवा शक्ती का रास्ते पर उतरना और अहिंसा के मार्ग से आंदोलन करना यही देश में होने जा रहे परिवर्तन के पूर्व संकेत हो सकते हैं। लगता है, अब देश में परिवर्तन का समय निकट आ रहा हैं। युवाशक्ती ही राष्ट्रशक्ती होने के कारण देश में युवा शक्ती परिवर्तन लायेगी ऐसा विश्वास हो रहा हैं। जरुरी हैं कि इस बारे में सरकार की तरफ से गम्भीर सोच हो। सरकार की तरफ से बयान आ रहे हैं कि शिघ्र ही कानून में संशोधन कर के अपराधियों को कडी से कडी सजा दी जायेगी। सरकार के कहने का यही मतलब निकलता हैं कि जनता अन्याय, अत्याचार के विरोध में बार बार आंदोलन करती रहे और आंदोलन के बाद सरकार कानून में संशोधन करने का आश्वासन देती रहेगी।

26 जनवरी 1950 को इस देश में हम भारत की जनता ने पहला प्रजासत्ताक दिन मनाया। इसी दिन जनता इस देश की मालिक बन गयी। सरकारी तिजोरी जनता की हैं। उसका सही नियोजन करने के लिए और देश की सर्वोच्च व्यवस्था न्याय व्यवस्था होने के कारण देश में कानून और सुव्यवस्था रखने के लिए देश में अच्छे अच्छे सशक्त कानून बनवाने के लिए हम देश की जनता ने राज्य के लिए विधायक और केंद्र के लिए सांसदों को जनता के सेवक के नाते भेजा हैं। मंत्री मंडल में जो लोग हैं, वह भी जनता के सेवक हैं। विधानसभा और लोकसभा का मुख्य काम हैं कानून और सुव्यवस्था के लिए सशक्त कानून बनाना। आज गैंगरेप के कारण जनता का गुस्सा बेकाबू हो गया और उधर प्रधानमंत्री के नाते आप, श्रीमती सोनिया गांधीजी और सरकार के लोग कह रहे हैं कि हम कानून में संशोधन कर के दोषियों को कठोर शासन करेंगे। आजादी के 65 साल बीत गये हैं। प्रश्न खडा होता हैं कि, महिलांओं पर इस प्रकार के अन्याय अत्याचार के देश में हजारो उदाहरण हैं। देश में सुव्यवस्था बनाये रखने के लिए नये नये कानून बनवाने और कानून में संशोधन करना यही तो सरकार का कर्तव्य था। तो 65 साल में आज तक आज तक सरकार ने कानून में संशोधन कर के फांशी या जन्मठेप जैसे सशक्त कानून क्यों नही बनवाये ?

गैंगरेप जैसी शर्मनाक घटना के लिए छह लोग दोषी बताए जाते हैं। ऐसे अपराध करनेवालों को फांशी या उम्रकैद की सजा जैसे सशक्त कानून बनवाये गये होते तो इन छह आरोपीयों की ऐसा गुनाह करने की हिम्मत ही नही होती। क्या सरकार को ऐसा नही लगता? हमें लगता हैं कि इन छह दोषी आरोपीयों को कडी से कडी सजा तो मिलनी चाहिए, लेकिन पिछले 65 साल में सशक्त कानून न बनवाने वाली सरकार भी तो उतनी ही जिम्मेदार हैं। ऐसा अगर हम कहें तो गलत नही होगा।

बढते भ्रष्टाचार के कारण जनता का जिना मुश्किल हो गया हैं। महंगाई के कारण परिवार चलाना मुश्किल हो गया हैं। परेशान हो कर देश की जनता करोडों की संख्या में रास्ते पर उतर गयी थी। अगर भ्रष्टाचार को रोखने वाले सशक्त कानून बनवाये गये होते भ्रष्टाचार नही बढना था। 16 अगस्त 2011 को देशभर में जनता ने रास्ते पर उतर कर अपना गुस्सा प्रदर्शित किया था। अण्णा हजारे तो रामलिला मैदान में निमित्त मात्र थे। जनता रास्तेपर उतर गयी थी क्यों कि जनता को जिना मुश्किल हो गया और दिल में भ्रष्टाचार का बहुत गुस्सा था। आपकी सरकार ने जनता के सब्र का अब और अंत नही देखना चाहिए। कानून और सुव्यवस्था बनाये रखने हेतू सशक्त कानून बनवाने के लिए तो जनता ने सांसदों को संसद में भेजा हैं। उस कर्तव्य भावना से सशक्त कानून ना बनवाने के कारण और गैंगरेप की घटना घटती हैं तो जनता का गुस्सा होना सहज-स्वाभाविक हैं। इस में उनका क्या दोष हैं ?

सरकार चलानेवाले लोगो ने सोचना चाहिए कि यदि अपनी बेटी या अपनी बहन के साथ ऐसा व्यवहार होता तो आप क्या करते? जनता को गुस्सा आया इसमें उनका क्या दोष हैं। अहिंसा के मार्ग से जनता आंदोलन करती हैं और धारा 144 लगा कर  सरकार जनतंत्र का गला घोटने का काम करती हैं। ऐसा कहे तो गलत नही होगा। जनता को संविधान ने ही आंदोलन का अधिकार दिया हैं। जनता में ऐसा गुस्सा फिर से पैदा ना हो इस लिए महिलाओं के संरक्षण के लिए सशक्त कानून बनवाना सरकार के हाथ में हैं और यह सरकार का कर्तव्य भी हैं। आज सरकार जनता को जो आश्वासन दे रही हैं वह पहले भी तो कर सकती थी। लेकिन समाज और देश की भलाई की अपेक्षा, लगता हैं कि सत्ता और पैसे की सोच अधिक प्रभावी होने से सरकार कुछ नही कर पाती।

आज देश में युवकों ने और देश की जनता ने जो आंदोलन किया वह अहिंसा के मार्ग से किया हैं। कहीपर भी तोडफोड की घटना नही घटी। आंदोलन का यह एक आदर्श उदाहरण हैं। देश और दुनिया के लिए एक आदर्श हैं। आंदोलन कारियों का मुख्य उद्देश यही हैं महिलायों पर फिर से ऐसा अन्याय, अत्याचार ना हो ऐसा सशक्त कानून सरकार से बनवा कर दोषी लोगों को कडी सजा मिल जाए। इस आंदोलन से सरकारने समझना चाहिए कि देश का युवक, देश की जनता सामाजिक परिवर्तन चाहती हैं। संविधान के मुताबिक जीवन की जरुरत पुरी करने और अच्छा जीवन जिने का हर हर व्यक्ति को अधिकार हैं। सामाजिक अन्याय के लिए संघर्ष करनेवाली जनता को सशक्त कानून का अगर आधार मिल जाए तो देश में सामाजिक परिवर्तन का बहुत बडा काम होगा। दोषी आरोपियों को कडी से कडी सजा मिले और आगे ऐसी घटना ना हो इसलिए सशक्त कानून जल्द से जल्द बने, चाहे इसके लिए संसद का विशेष अधिवेशन बुलाना पडे तो इसपर सरकार की राय जानना चाहता हूं। इस काम के लिए सरकार चलानेवाले और कानून बनानेवाले लोगों को सद्बुद्धी मिले इस लिए 27 और 28 दिसंबर को मैं और गांव के कुछ लोग मेरे गांव रालेगण सिद्धी के श्री संत यादवबाबा मंदिर में भगवान से प्रार्थना के लिए बैठने का संकल्प किया हैं।
भवदीय,
कि. बा. तथा अण्णा हजारे.
(मैं जनता और युवा भाई बहिनों से विनंती करता हूँ, आंदोलन करते समय संयम रखे। राष्ट्रीय संपत्ती की कोई हानी ना हो। रास्ते से गुजरने वाले सभी जन हमारे भाई-बहन हैं। उन्हे तकलिफ ना हो। आपने पहले भी अगस्त 2011 में शांतिपूर्ण आंदोलन का आदर्श निर्माण किया हैं। करोडो युवक रास्ते पर उतरे। लेकिन किसी ने एक पत्थर तक नही उठाया। उस आदर्श की दुनिया ने सराहना की हैं। उसी आदर्श को सामने रखते हुए शांती के मार्ग से आंदोलन करने की विनंती करता हूँ। अन्याय और अत्याचार की विरोध में जली हुई मशाल को कभी बुझने ना देना। इसी में है समाज और देश की भलाई।)
जयहिंद।

बुधवार, 19 दिसंबर 2012

भारत में सिलसिलेवार आरक्षण


भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत के संविधान ने पहले के कुछ जाति-समूहों को अनुसूचित जाति (अजा) और अनुसूचित जनजाति (अजजा) के रूप में सूचीबद्ध किया. संविधान निर्माताओं का मानना था कि जाति व्यवस्था के कारण अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति ऐतिहासिक रूप से दलित रहे. उन्हें भारतीय समाज में सम्मान तथा समान अवसर नहीं दिया गया. इसलिए राष्ट्र-निर्माण की गतिविधियों में उनकी हिस्सेदारी कम रही. संविधान ने सरकारी सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थाओं की खाली सीटों तथा सरकारी नौकरियों में अजा और अजजा के लिए 15% और 7.5% का आरक्षण रखा था, जो पांच वर्षों के लिए था. उसके बाद हालात की समीक्षा किया जाना तय था. यह अवधि नियमित रूप से अनुवर्ती सरकारों द्वारा बढ़ा दी जाती रही.
बाद में, अन्य वर्गों के लिए भी आरक्षण शुरू किया गया. 50% से अधिक का आरक्षण नहीं हो सकता, सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से (जिसका मानना है कि इससे समान अभिगम की संविधान की गारंटी का उल्लंघन होगा) आरक्षण की अधिकतम सीमा तय हो गयी. हालांकि, राज्य कानूनों ने इस 50% की सीमा को पार कर लिया है और सर्वोच्च न्यायालय में इन पर मुकदमे चल रहे हैं. उदाहरण के लिए जाति-आधारित आरक्षण भाग 69% है और तमिलनाडु की करीब 87% जनसंख्या पर यह लागू होता है. सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार 50% से अधिक आरक्षण नहीं किया जा सकता लेकिन राजस्थान जैसे कुछ राज्यों ने 68% आरक्षण का प्रस्ताव रखा है. इसमें अगड़ी जातियों के लिए 14% आरक्षण भी शामिल है.
विंध्य के दक्षिण में प्रेसीडेंसी क्षेत्रों और रियासतों के एक बड़े क्षेत्र में पिछड़े वर्गो (बीसी) के लिए आजादी से बहुत पहले आरक्षण की शुरुआत हुई थी. महाराष्ट्र में कोल्हापुर के महाराजा छत्रपति साहूजी महाराज ने 1902 में पिछड़े वर्ग से गरीबी दूर करने और राज्य प्रशासन में उन्हें उनकी हिस्सेदारी देने के लिए आरक्षण का प्रारम्भ किया था. कोल्हापुर राज्य में पिछड़े वर्गों/समुदायों को नौकरियों में आरक्षण देने के लिए 1902 की अधिसूचना जारी की गयी थी. यह अधिसूचना भारत में दलित वर्गों के कल्याण के लिए आरक्षण उपलब्ध कराने वाला पहला सरकारी आदेश है.
देशभर में समान रूप से अस्पृश्यता की अवधारणा का अभ्यास नहीं हुआ करता था, इसलिए दलित वर्गों की पहचान आसान काम नहीं है. इसके अलावा, अलगाव और अस्पृश्यता की प्रथा भारत के दक्षिणी भागों में अधिक प्रचलित रही और उत्तरी भारत में अधिक फैली हुई थी. एक अतिरिक्त जटिलता यह है कि कुछ जातियां/समुदाय जो एक प्रांत में अछूत माने जाते हैं लेकिन अन्य प्रांतों में नहीं. परंपरागत व्यवसायों के आधार पर कुछ जातियों को हिंदू और गैर-हिंदू दोनों समुदायों में स्थान प्राप्त है. जातियों के सूचीकरण का एक लंबा इतिहास है, मनु के साथ हमारे इतिहास के प्रारंभिक काल से जिसकी शुरुआत होती है. मध्ययुगीन वृतांतों में देश के विभिन्न भागों में स्थित समुदायों के विवरण शामिल हैं. ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के दौरान, 1806 के बाद व्यापक पैमाने पर सूचीकरण का काम किया गया था. 1881 से 1931 के बीच जनगणना के समय इस प्रक्रिया में तेजी आई.
पिछड़े वर्गों का आंदोलन भी सबसे पहले दक्षिण भारत, विशेषकर तमिलनाडु में जोर पकड़ा. देश के कुछ समाज सुधारकों के सतत प्रयासों से अगड़े वर्ग द्वारा अपने और अछूतों के बीच बनायी गयी दीवार पूरी तरह से ढह गयी. उन सुधारकों में शामिल हैं रेत्तामलई श्रीनिवास पेरियार, अयोथीदास पंडितर, ज्योतिबा फुले, बाबा साहेब अम्बेडकर, छत्रपति साहूजी महाराज और अन्य.
जाति व्यवस्था नामक सामाजिक वर्गीकरण के एक रूप के सदियों से चले आ रहे अभ्यास के परिणामस्वरूप भारत अनेक अंतर्विवाही समूहों या जातियों और उपजातियों में विभाजित है. आरक्षण नीति के समर्थकों का कहना है कि परंपरागत रूप से चली आ रही जाति व्यवस्था में निचली जातियों के लिए घोर उत्पीड़न और अलगाव है और  शिक्षा समेत उनकी विभिन्न तरह की आजादी सीमित है. "मनु स्मृति" जैसे प्राचीन ग्रंथों के अनुसार जाति एक "वर्णाश्रम धर्म" है, जिसका अर्थ हुआ "वर्ग या उपजीविका के अनुसार पदों का दिया जाना". वर्णाश्रम (वर्ण + आश्रम) के "वर्ण" शब्द के समानार्थक शब्द 'रंग' से भ्रमित नहीं होना चाहिए. भारत में जाति प्रथा ने इस नियम का पालन किया. 
आरक्षण का सिलसिला--
1882 - हंटर आयोग की नियुक्ति हुई. महात्मा ज्योतिराव फुले ने नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा के साथ सरकारी नौकरियों में सभी के लिए आनुपातिक आरक्षण/प्रतिनिधित्व की मांग की.
1891- त्रावणकोर के सामंती रियासत में 1891 के आरंभ में सार्वजनिक सेवा में योग्य मूल निवासियों की अनदेखी करके विदेशियों को भर्ती करने के खिलाफ प्रदर्शन के साथ सरकारी नौकरियों में आरक्षण के लिए मांग की गयी.
1901- महाराष्ट्र के सामंती रियासत कोल्हापुर में शाहू महाराज द्वारा आरक्षण शुरू किया गया. सामंती बड़ौदा और मैसूर की रियासतों में आरक्षण पहले से लागू थे.
1908- अंग्रेजों द्वारा बहुत सारी जातियों और समुदायों के पक्ष में, प्रशासन में जिनका थोड़ा-बहुत हिस्सा था, के लिए आरक्षण शुरू किया गया.
1909 - भारत सरकार अधिनियम 1909 में आरक्षण का प्रावधान किया गया.
1919- मोंटागु-चेम्सफोर्ड सुधारों को शुरु किया गया.
1919 - भारत सरकार अधिनियम 1919 में आरक्षण का प्रावधान किया गया.
1921 - मद्रास प्रेसीडेंसी ने जातिगत सरकारी आज्ञापत्र जारी किया, जिसमें गैर-ब्राह्मणों के लिए 44 प्रतिशत, ब्राह्मणों के लिए 16 प्रतिशत, मुसलमानों के लिए 16 प्रतिशत, भारतीय-एंग्लो/ईसाइयों के लिए 16 प्रतिशत और अनुसूचित जातियों के लिए आठ प्रतिशत आरक्षण दिया गया था.
1935 - भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने प्रस्ताव पास किया, जो पूना समझौता कहलाता है, जिसमें दलित वर्ग के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र आवंटित किए गए.
1935- भारत सरकार अधिनियम 1935 में आरक्षण का प्रावधान किया गया.
1942 -डॉ. अम्बेडकर ने अनुसूचित जातियों की उन्नति के समर्थन के लिए अखिल भारतीय दलित वर्ग महासंघ की स्थापना की. उन्होंने सरकारी सेवाओं और शिक्षा के क्षेत्र में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण की मांग की.
1946 - 1946 भारत में कैबिनेट मिशन अन्य कई सिफारिशों के साथ आनुपातिक प्रतिनिधित्व का प्रस्ताव दिया.
1947 में भारत ने स्वतंत्रता प्राप्त की. डॉ. अम्बेडकर को संविधान भारतीय के लिए मसौदा समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया गया. भारतीय संविधान ने केवल धर्म, नस्ल, जाति, लिंग और जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध करता है. बल्कि सभी नागरिकों के लिए समान अवसर प्रदान करते हुए सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछले वर्गों या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की उन्नति के लिए संविधान में विशेष धाराएं रखी गयी हैं. 10 सालों के लिए उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए अलग से निर्वाचन क्षेत्र आवंटित किए गए हैं.हर दस साल के बाद सांविधानिक संशोधन के जरिए इन्हें बढ़ा दिया जाता है.
1947-1950 - संविधान सभा में बहस.
26/01/1950- भारत का संविधान लागू हुआ.
1953 - सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए कालेलकर आयोग को स्थापित किया गया. जहां तक अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का संबंध है रिपोर्ट को स्वीकार किया गया. अन्य पिछड़ी जाति (ओबीसी (OBC)) वर्ग के लिए की गयी सिफारिशों को अस्वीकार कर दिया गया.
1956- काका कालेलकर की रिपोर्ट के अनुसार अनुसूचियों में संशोधन किया गया.
1976- अनुसूचियों में संशोधन किया गया.
1979 - सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए मंडल आयोग को स्थापित किया गया. आयोग के पास उपजाति, जो अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी कहलाती है, का कोई सटीक आंकड़ा था और ओबीसी की 52% आबादी का मूल्यांकन करने के लिए 1930 की जनगणना के आंकड़े का इस्तेमाल करते हुए पिछड़े वर्ग के रूप में 1,257 समुदायों का वर्गीकरण किया.
1980 - आयोग ने एक रिपोर्ट पेश की, और मौजूदा कोटा में बदलाव करते हुए 22% से 49.5% वृद्धि करने की सिफारिश की.2006 के अनुसार पिछड़ी जातियों की सूची में जातियों की संख्या 2297 तक पहुंच गयी, जो मंडल आयोग द्वारा तैयार समुदाय सूची में 60% की वृद्धि है.
1990- मंडल आयोग की सिफारिशें विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा सरकारी नौकरियों में लागू किया गया. छात्र संगठनों ने राष्ट्रव्यापी प्रदर्शन शुरू किया. दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र राजीव गोस्वामी ने आत्मदाह की कोशिश की. कई छात्रों ने इसका अनुसरण किया.
1991- नरसिम्हा राव सरकार ने अलग से अगड़ी जातियों में गरीबों के लिए 10% आरक्षण शुरू किया.
1992- इंदिरा साहनी मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण को सही ठहराया.
1995- संसद ने 77वें सांविधानिक संशोधन द्वारा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की तरक्की के लिए आरक्षण का समर्थन करते हुए अनुच्छेद 16(4)(ए) डाला. बाद में आगे भी 85वें संशोधन द्वारा इसमें अनुवर्ती वरिष्ठता को शामिल किया गया था.
1998- केंद्र सरकार ने विभिन्न सामाजिक समुदायों की आर्थिक और शैक्षिक स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए पहली बार राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण किया. राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण का आंकड़ा 32% है . जनगणना के आंकड़ों के साथ समझौ्तावादी पक्षपातपूर्ण राजनीति के कारण अन्य पिछड़े वर्ग की सटीक संख्या को लेकर भारत में काफी बहस चलती रहती है. आमतौर पर इसे आकार में बड़े होने का अनुमान लगाया गया है, लेकिन यह या तो मंडल आयोग द्वारा या और राषट्रीय नमूना सर्वेक्षण द्वारा दिए गए आंकड़े से कम है. मंडल आयोग ने आंकड़े में जोड़-तोड़ करने की आलोचना की है. राष्ट्रीय सर्वेक्षण ने संकेत दिया कि बहुत सारे क्षेत्रों में ओबीसी की स्थिति की तुलना अगड़ी जाति से की जा सकती है.
12 अगस्त 2005- सर्वोच्च न्यायालय ने पी. ए. इनामदार और अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य के मामले में 12 अगस्त 2005 को 7 जजों द्वारा सर्वसम्मति से फैसला सुनाते हुए घोषित किया कि राज्य पेशेवर कॉलेजों समेत सहायता प्राप्त कॉलेजों में अपनी आरक्षण नीति को अल्पसंख्यक और गैर-अल्पसंख्यक पर नहीं थोप सकता हैं.
2005- निजी शिक्षण संस्थानों में पिछड़े वर्गों और अनुसूचित जाति तथा जनजाति के लिए आरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए 93वां सांविधानिक संशोधन लाया गया. इसने अगस्त 2005 में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को प्रभावी रूप से उलट दिया.
2006- सर्वोच्च न्यायालय  की सांविधानिक पीठ में एम. नागराज और अन्य बनाम यूनियन बैंक और अन्य के मामले में सांविधानिक वैधता की धारा 16(4) (ए), 16(4) (बी) और धारा 335 के प्रावधान को सही ठहराया गया.
2006-  केंद्रीय सरकार के शैक्षिक संस्थानों में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण शुरू हुआ. कुल आरक्षण 49.5% तक चला गया.
2007- केंद्रीय सरकार के शैक्षिक संस्थानों में ओबीसी आरक्षण पर सर्वोच्च न्यायालय ने स्थगन दे दिया.
2008-भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 10 अप्रैल 2008 को सरकारी धन से पोषित संस्थानों में 27% ओबीसी कोटा शुरू करने के लिए सरकारी कदम को सही ठहराया. न्यायालय ने स्पष्ट रूप से अपनी पूर्व स्थिति को दोहराते हुए कहा कि "मलाईदार परत" को आरक्षण नीति के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए. क्या आरक्षण के निजी संस्थानों आरक्षण की गुंजाइश बनायी जा सकती है, सर्वोच्च न्यायालय इस सवाल का जवाब देने में यह कहते हुए कतरा गया कि निजी संस्थानों में आरक्षण कानून बनने पर ही इस मुद्दे पर निर्णय तभी लिया जा सकता है. समर्थन करनेवालों की ओर से इस निर्णय पर मिश्रित प्रतिक्रियाएं आयीं और तीन-चौथाई ने इसका विरोध किया.
मलाईदार परत को पहचानने के लिए विभिन्न मानदंडों की सिफारिश की गयी, जो इस प्रकार हैं:-  साल में 2,50,000 रुपये से ऊपर की आय वाले परिवार को मलाईदार परत में शामिल किया जाना चाहिए और उसे आरक्षण कोटे से बाहर रखा गया. इसके अलावा, डॉक्टर, इंजीनियर, चार्टर्ड एकाउंटेंट, अभिनेता, सलाहकारों, मीडिया पेशेवरों, लेखकों, नौकरशाहों, कर्नल और समकक्ष रैंक या उससे ऊंचे पदों पर आसीन रक्षा विभाग के अधिकारियों, उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों, सभी केंद्र और राज्य सरकारों के ए और बी वर्ग के अधिकारियों के बच्चों को भी इससे बाहर रखा गया. अदालत ने सांसदों और विधायकों के बच्चों को भी कोटे से बाहर रखने का अनुरोध किया है.भारत की केंद्र सरकार ने उच्च शिक्षा में 27% आरक्षण दे रखा है और विभिन्न राज्य आरक्षणों में वृद्धि के लिए क़ानून बना सकते हैं.

शनिवार, 8 दिसंबर 2012

रीटेल में एफडीआई के अंतर्निहित तथ्य


वक्‍त निकाल कर एक बार पढ़ें।
सिंगल ब्रांड खुदरा बाज़ार में 100 फीसदी और मल्‍टीब्रांड में 51 फीसदी प्रत्‍यक्ष विदेशी निवेश ने तबाही की अंतिम खुराक इस देश को खिला दी है। दस-बारह साल का खेल और है, फिर कुछ कहने या समझाने की ज़रूरत नहीं होगी। बहरहाल, देश बिक रहा है लेकिन दिमाग हर स्थिति में स्‍वस्‍थ रहना चाहिए। एफडीआई पर जो सरकारी दावे हैं, भ्रम हैं, उनको कुछ हद तक साफ करने की नीचे एक कोशिश है। वक्‍त निकाल कर एक बार पढ़ें।  

सवाल: घरेलू खुदरा क्षेत्र पर रीटेल में एफडीआर्इ का क्या असर होगा?

भारत का खुदरा क्षेत्र कृषि के बाद सबसे ज्यादा लोगों को रोजगार देता है। हालिया राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण 2009-10 के मुताबिक 4 करोड़ लोग इस क्षेत्र में कार्यरत हैं। इनमें से अधिकतर छोटे असंगठित और स्वरोजगाररत खुदरा कारोबारी हैं जिन्हें अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्रों में लाभकर रोजगार मिलना मुश्किल या असंभव है।

भारत की उच्च जीडीपी वृद्धि दर के हो-हल्ले के बावजूद एनएसएस 2009-10 ने इस बात की पुष्टि की है कि यह वृद्धि रोजगारों को नहीं बढ़ा रही। कुल रोजगार वृद्धि दर 2000-2005 के दौरान 2.7 फीसदी से घट कर 2005-2010 के दौरान सिर्फ 0.8 फीसदी रह गर्इ है। गैर-कृषि रोजगार में वृद्धि दर 4.65 फीसदी से गिर कर 2.53 फीसदी रह गर्इ है। राष्ट्रीय स्तर पर सभी कामगारों के बीच करीब 51 फीसदी स्वरोजगाररत थे, 33.5 फीसदी अनियमित मजदूर थे और सिर्फ 15.6 फीसदी नियमित वेतन-भत्‍ता पाने वाले कर्मचारी थे।

ऐसे परिदृश्य में बहुराष्ट्रीय सुपरमार्केट और हाइपरमार्केट श्रृंखलाओं का प्रवेश छोटे और असंगठित खुदरा विक्रेताओं को बड़े पैमाने पर विस्थापित करेगा। आर्इसीआरआर्इर्इआर द्वारा असंगठित रीटेलरों का 2008 में किया गया नमूना सर्वेक्षण बताता है कि एक असंगठित खुदरा व्यापारी की दुकान का औसत आकार करीब 217 वर्ग फुट होता है जिसमें हॉकरों द्वारा इस्तेमाल में लाए जाने वाले ठेले और कियोस्क शामिल नहीं हैं (इम्पैक्ट ऑफ ऑर्गनाइज्ड रीटेलिंग ऑन दी अनऑर्गनाइज्ड सेक्टर, आर्इसीआरआर्इर्इआर, मर्इ 2008)। रिपोर्ट के मुताबिक असंगठित रीटेल का कुल सालाना कारोबार 2006-07 में 408.8 अरब डॉलर था और कुल पारंपरिक दुकानों की संख्या 1.3 करोड़ थी। लिहाजा एक दुकान का सालाना औसत कारोबार 15 लाख रुपए के आसपास आता है। सर्वे के मुताबिक एक औसत दुकान में दो से तीन लोग काम करते हैं।

अमेरिका में वालमार्ट सुपरमार्केट का औसत आकार 108000 वर्ग फुट होता है जिसमें 225 लोग काम करते हैं। वालमार्ट ने 2010 में 28 देशों के अपने 9800 आउटलेट से 405 अरब डॉलर के सामानों की बिक्री की जिनमें कुल 21 लाख लोग रोजगाररत थे।

इसका अर्थ यह हुआ कि वालमार्ट की एक दुकान भारत की 1300 छोटी दुकानों को निगल जाएगी और 3900 लोग एक झटके में बेरोजगार हो जाएंगे। इसके बदले उस स्टोर में कुल 214 नौकरियां सृजित होंगी (या फिर अमेरिकी औसत अधिकतम 225)। ज़ाहिर है, यदि बहुराष्ट्रीय रीटेलरों को भारत में प्रवेश दिया गया तो रोजगारों में भारी कटौती होगी।

सवाल: क्या रीटेल में एफडीआर्इ देने से तीन साल में एक करोड़ नौकरियां सृजित होंगी?

वाणिज्य मंत्री ने दावा किया था कि रीटेल में एफडीआर्इ के आने से तीन साल में एक करोड़ रोजगार पैदा होंगे और प्रत्यक्षत: 40 लाख रोजगार पैदा होंगे, बाकी बैक एंड के कामों में पैदा होंगे। नीचे हम दुनिया भर में शीर्ष चार रीटेलरों के स्टोर और उनमें काम करने वाले लोगों के आंकड़े दे रहे हैं:--  (1.) वाल मार्ट- दुनिया में कुल स्टोर- 9826,  कुल कर्मचारी- 21,00,000 , एक स्टोर में औसत कर्मचारी- 214  (2.) कारफूर- दुनिया में कुल स्टोर- 15937, कुल कर्मचारी- 4,71,755, एक स्टोर में औसत कर्मचारी- 30  (3.) मेट्रो- दुनिया में कुल स्टोर- 2131, कुल कर्मचारी- 2,83,280, एक स्टोर में औसत कर्मचारी- 133 (4.) टेस्को- दुनिया में कुल स्टोर- 5380, कुल कर्मचारी- 4,92,714, एक स्टोर में औसत कर्मचारी- 92

इसका मतलब यह हुआ कि यदि तीन साल में 40 लाख नौकरियां भी पैदा करनी हैं, तो अकेले वालमार्ट को भारत में 18600 सुपरमार्केट खोलने होंगे। यदि इन चार शीर्ष रीटेलरों का औसत निकाला जाए, यानी 117 कर्मचारी प्रति स्टोर, तो तीन साल में 40 लाख लोगों को नौकरी देने के लिए 34180 से ज्यादा सुपरमार्केट खोलने होंगे यानी प्रत्येक 53 शहरों में 64 सुपरमार्केट। क्या वाणिज्य मंत्री के ऐसे अटपटे दावे को गंभीरता से लिया जा सकता है?

इसके अलावा, हमारा पहले का अनुमान बताता है कि सुपरमार्केट में पैदा हुर्इ हर एक नौकरी के लिए भारतीय असंगठित खुदरा क्षेत्र में 17 लोगों की नौकरी चली जाएगी। यानी यदि तीन साल में सुपरमार्केटों में 40 लाख लोगों को नौकरी मिलेगी, तो भारत में समूचा असंगठित खुदरा क्षेत्र (4 करोड़ से ज्यादा लोगों को रोजगार देने वाला) पूरी तरह साफ हो जाएगा।


सवाल: क्या सरकार द्वारा लागू की गर्इ बंदिशें भारतीय रीटेलरों की रक्षा कर पाएंगी?

शुरुआत में 10 लाख से ज्यादा आबादी वाले 53 शहरों में बहुराष्ट्रीय सुपरमार्केट खोले जाने की बंदिश निरर्थक है क्योंकि असंगठित क्षेत्र के अधिकतम छोटे खुदरा विक्रेता इन्हीं शहरों में हैं। इन 53 शहरों में 17 करोड़ लोग हैं और असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों की संख्या दो करोड़ से ज्यादा है। यहीं सबसे ज्यादा विस्थापन होगा। बहुराष्ट्रीय रीटेलरों की दिलचस्पी सबसे ज्यादा बाजार के महानगरीय और शहरी सेगमेंट को कब्जाने की है जहां लोगों की क्रय शक्ति ज्यादा है। अर्धशहरी या ग्रामीण इलाकों में काम करने में उनकी दिलचस्पी नहीं है।

रीटेल में 500 करोड़ के न्यूनतम निवेश की शर्त भी बेकार है क्योंकि जो कंपनियां भारतीय बाजार में प्रवेश करने की इच्छुक हैं, वे विश्वव्यापी हैं। सबसे बड़ी कंपनी वालमार्ट का सालाना राजस्व 400 अरब डॉलर है और कारफूर, मेट्रो या टेस्को का भी सालाना कारोबार 100 अरब डॉलर से ज्यादा है। अपने देशों यानी अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी और इंगलैंड इत्यादि में इन्हें मंदी का सामना करना पड़ रहा है, इसीलिए ये उभरते हुए बाजारों जैसे भारत में आना चाहती हैं। इनके पास पर्याप्त वित्तीय संसाधन हैं और इन्हें पता है कि घरेलू रीटेलरों को बाजार से बाहर करने के लिए विभिन्न आकार और प्रकार के आउटलेट कैसे खोले जा सकते हैं।

हो सकता है कि भारत में मौजूदा बड़े रीटेलरों को ये कंपनियां खरीद लें। इसी तरीके से लातिन अमेरिका और एशिया के अन्य देशों में इन्होंने अपना कारोबार फैलाया है। मसलन, 1991-92 में वालमार्ट ने मेक्सिको में प्रवेश के दौरान स्थानीय रीटेलर सिफ्रा के साथ 50-50 फीसदी की हिस्सेदारी कर ली। 1997 तक इसने अधिकांश हिस्सेदारी ले ली और 2000 तक इस संयुक्त उद्यम में साठ फीसदी हिस्सा ले लिया। वालमार्ट अकेले समूचे मेक्सिको में कुल खुदरा बिक्री का 25 फीसदी हिस्सेदार है और विशाल रीटेलरों के कुल विक्रय में इसकी हिस्सेदारी 43 फीसदी है।

सवाल: क्या भारत के छोटे और मझोले उद्यमों को वैश्विक रीटेलरों के आने से लाभ होगा?

सरकार द्वारा छोटे और मझोले उद्यमों से 30 फीसदी सामान खरीदने की बहुराष्ट्रीय रीटेलरों पर लादी गर्इ अनिवार्यता ने भ्रम पैदा करने का काम किया है। वाणिज्य मंत्री कहते हैं कि यह प्रावधान भारत के छोटे और मझोले उद्यमों के लिए किया गया है, लेकिन उन्हीं के मंत्रालय द्वारा जारी प्रेस नोट साफ तौर पर कहता है, ''तीस फीसदी खरीदारी छोटे और मझोले उद्यमों से की जानी है जो दुनिया के किसी भी हिस्से से की जा सकती है और यह भारत के लिए बाध्य नहीं है। हालांकि इस मामले में यह प्रावधान है कि 30 फीसदी खरीदारी उन छोटे और मझोले उद्यमों से की जाएगी जिनके पास 10 लाख डॉलर के बराबर संयंत्र और मशीनरी होगी।

इसके अलावा गैट समझौते का अनुच्छेद 3 किसी भी पक्ष के लिए यह अनिवार्य करता है कि वह दूसरे पक्ष के साथ अनुबंध के तहत उसके उत्पादों को ''राष्ट्रीय बरताव'' प्रदान करे। इसमें साफ तौर पर घरेलू उद्योगों से संसाधन लेने की जरूरत संबंधी नियमन को बाहर रखा गया है। चूंकि भारत ने इन्हीं शर्तों पर विश्व व्यापार संगठन की सदस्यता ली थी, लिहाजा सिर्फ भारतीय उद्यमों से 30 फीसदी संसाधन लेने की बाध्यता वह लागू नहीं कर सकता क्योंकि इसे दूसरे देश चुनौती दे देंगे। इसके अतिरिक्त भारत ने 71 देशों के साथ द्विपक्षीय निवेश संवर्द्धन और संरक्षण संधियां की हुर्इ हैं जिसके तहत इन देशों के निवेशकों के साथ ''राष्ट्रीय बरताव'' किया जाना होगा। ज़ाहिर है ये देश अपने यहां के छोटे और मझोले उद्यमों से सामग्री आयात की बात कहेंगे। इसका मतलब यह हुआ कि 30 फीसदी की अनिवार्यता का व्यावहारिक अर्थ दुनिया भर के छोटे व मझोले उद्यमों से सस्ते उत्पाद मंगवा कर शुल्क संरक्षण का उल्लंघन करते हुए इन्हें भारत में डम्प करना हुआ जो सीधे तौर पर भारतीय किसानों के हितों को नुकसान पहुंचाएगा। सरकार के पास इसे रोकने का कोर्इ तरीका नहीं है।

सवाल: क्या बहुराष्ट्रीय रीटेलर हमारी खाध आपूर्ति श्रृंखला का आधुनिकीकरण कर देंगे?

वाणिज्य मंत्रालय का दावा है कि बहुराष्ट्रीय रीटेलरों द्वारा किए गए निवेश का आधा हिस्सा हमारे बुनियादी ढांचे के विकास में खर्च होगा जिससे आपूर्ति श्रृंखला आधुनिक बनेगी, सक्षमता बढ़ेगी और संसाधनों की बरबादी कम होगी। यदि इन कंपनियों को ताजा फल, सब्ज़ी, दुग्ध उत्पाद और मीट भारी मात्रा में बेचना है, तो उन्हें अपने हित में बुनियादी ढांचे को विकसित करना मजबूरी होगी। लेकिन शीतगृह, प्रशीतन वाले परिवहन और अन्य व्यवस्थाएं जो वे लागू करेंगे, वे पूरी तरह उनके अपने कारोबार को समर्पित होंगे, किसानों और उपभोक्ताओं के व्यापक हितों के लिए नहीं। इसलिए यह दावा कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां आपूर्ति श्रृंखला को आधुनिक बना देंगी, सिर्फ एक दुष्प्रचार है।

अमेरिका में 1578 कोल्ड स्टोरेज में से 839 सरकारी हैं और 739 निजी या अर्ध-सरकारी। सरकारी गोदाम कहीं ज्यादा बड़े हैं जिनमें कुल भंडारण क्षमता का 76 फीसदी आता है जबकि निजी क्षेत्र के गोदामों की हिस्सेदारी महज 24 फीसदी है। भारत में 5381 कोल्ड स्टोरेज हैं जो अपेक्षया छोटे आकार के हैं, जिनमें से 4885 निजी क्षेत्र के हैं, 356 सहकारी हैं और सिर्फ 140 सरकारी हैं। भारत की कुल भंडारण क्षमता में निजी क्षेत्र का हिस्सा 95 फीसदी से ज्यादा का है जबकि सरकारी क्षेत्र की हिस्सेदारी सिर्फ 0.44 फीसदी है। इसके अलावा 75 फीसदी से ज्यादा क्षमता का उपयोग सिर्फ आलू रखने के लिए होता है। नतीजतन कोल्ड स्टोरेज का औसत उपयोग सिर्फ 48 फीसदी के आसपास हो पाता है।

चीन, जो कि हर साल 50 करोड़ टन अन्न पैदा करता है, वहां कोल्ड स्टोरेज की क्षमता महज 39 करोड़ टन की है जो मोटे तौर पर सरकारी कंपनी साइनोग्रेन से संचालित होते हैं। इस सरकारी निगम ने न सिर्फ यहां के अनाज प्रबंधन को आधुनिक बनाया है बल्कि यह अनाज और तेल प्रसंस्करण के क्षेत्र में भी अपना विस्तार कर चुका है। इसके बरक्स भारत में कुल अनाज उत्पादन 23 करोड़ टन है जबकि कुल भंडारण और कोल्ड स्टोरेज क्षमता पांच करोड़ टन की है। एफसीआर्इ और केंद्रीय भंडार की क्षमता 4 करोड़ टन की है, बाकी राज्यों के केंद्रीय भंडार निगम जरूरत को पूरा करते हैं। पर्याप्त भंडारण की इस कमी के चलते अधिकतर अनाज बरबाद हो जाता है और सरकारी खरीद पर भी बंदिशें लग जाती हैं।

भारत जैसे बड़े देश में आपूर्ति श्रृंखला का आधुनिकीकरण बहुराष्ट्रीय कंपनियों के रास्ते नहीं हो सकता जो कि सिर्फ अपने कारोबारी लाभ के बारे में सोचती हैं। भंडारण क्षमता को सरकारी और सहकारी क्षेत्र में बढ़ाने की बहुत जरूरत है और इनका प्रबंधन दुरुस्त करने की दरकार है। रीटेल में एफडीआर्इ सक्रिय जनभागीदारी और इस निर्णायक क्षेत्र में सरकारी निवेश का विकल्प नहीं बन सकता।

सवाल: क्या भारतीय किसानों को रीटेल में एफडीआर्इ से लाभ होगा?

रीटेल में एफडीआर्इ के पैरोकार दावा कर रहे हैं कि बिचौलियों के सफाए और बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा सीधी खरीद से किसानों को बेहतर दाम मिलेंगे। सच्चार्इ यह है कि मौजूदा बिचौलियों के मुकाबले बहुराष्ट्रीय कंपनियां किसानों से मोलभाव करने की ज्यादा मजबूत स्थिति में होंगी।

मौजूदा मंडियों को आधुनिक बनाने और उनके प्रभवी नियमन की यहां बहुत जरूरत है क्योंकि इनमें व्यापारियों के बीच गोलबंदी देखी जाती है जिसके चलते छोटे किसानों को नुकसान होता है और उनसे अपना मुनाफा कमा कर व्यापारी अनाज की तहबाजारी और कालाबाजारी कर लेते हैं। हालांकि, कृषि खरीद में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का प्रवेश इस समस्या को और बदतर बना कर छोड़ेगा। आज मंडियां जिस तरीके से काम करती हैं, जहां किसानों से उनके उत्पाद खरीदने के लिए व्यापारियों को प्रतिस्पर्धा करनी होती है, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आने के बाद खरीदार सिर्फ एक होगा। इसके चलते किसान उन पर पूरी तरह निर्भर हो जाएंगे और उनके शोषण की गुंजाइश और ज्यादा बढ़ जाएगी।

अंतरराष्ट्रीय तजुर्बा इस बात की तस्दीक करता है। यूरोपीय संघ की संसद के अधिकांश सदस्यों ने फरवरी 2008 में एक संकल्प पारित किया था जो कहता है, ''यूरोपीय संघ में खुदरा बाजार पर अधिकतर सुपरमार्केट श्रृंखलाओं का कब्जा होता जा रहा है... यूरोपीय संघ से इकटठा किए गए साक्ष्य बताते हैं कि बड़े सुपरमार्केट खरीदने की अपनी क्षमता का दुरुपयोग कर के आपूर्तिकर्ताओं को मिलने वाले दाम को अनपेक्षित स्तरों तक गिरा रहे हैं (यूरोपीय संघ के भीतर और बाहर दोनों जगह) और उन पर पक्षपातपूर्ण शर्तें थोप रहे हैं। फ्रांस, इटली, नीदरलैंड्स, बेल्जियम, आयरलैंड और हंगरी जैसे यूरोपीय देशों के किसानों द्वारा सुपारमार्केट के विरोध के बाद यह संकल्प पारित किया गया था। इन सभी की शिकायतें एक सी थीं: दूध, मीट, कुक्कुट, वाइन आदि उत्पादों के मामले में सुपरमार्केट चलाने वाले रीटेलर किसानों को चूस रहे थे और कर्इ मामलों में उन्हें लागत से नीचे के दाम पर उत्पादों की बिक्री करने के लिए मजबूर कर रहे थे। घरेलू खाद्य और कृषि बाजारों में निगमों के संकेंद्रण और प्रतिस्पर्धा पर 2010 में अमेरिकी न्‍याय और कृषि विभाग ने संयुक्त रूप से कार्यशालाएं और जन सुनवाइयां भी आयोजित की थीं।

दक्षिण दशियार्इ देशों के अनुभव भी बताते हैं कि सुपरमार्केट के विस्तार से छोटे किसानों को कोर्इ लाभ नहीं होता। मलयेशिया और थाइलैंड में सुपरमार्केटों ने समय के साथ सब्जि़यों और फलों के आपूर्तिकताओं की संख्या घटार्इ और किसानों के बजाय थोक विक्रेताओं व दूसरे बिचौलियों से उत्पाद खरीदने में लग गए। इसके अलावा कर्इ अध्ययनों में इन सुपरमार्केट द्वारा अनियमितताएं भी सामने आर्इ हैं जैसे भुगतान में देरी, आपूर्तिकर्ता के निर्विकल्प होने की स्थिति में आखिरी वक्त पर दाम में कमी, बगैर नोटिस और समर्थन के मात्रा और गुणवत्ता में लाया गया बदलाव, बगैर उपयुक्त कारण से आपूर्तिकर्ता को सूची में से हटा देना और कर्ज पर भारी ब्याज वसूलना, इत्यादि।

भारत में अधिकांश किसान छोटे और हाशिये के हैं जो दो हेक्टेयर से भी कम जमीन पर खेती करते हैं। आज उनके सामने सबसे बड़ी समस्या लागत में इजाफा, कम दाम, संस्थागत कर्ज तक पहुंच का अभाव, तकनीक और बाजार से जुड़ी है। इन्हें सरकारी मदद और प्रोत्साहन की जरूरत है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा खरीद इनकी समस्या को सुलझाने के बजाय इन्हें और बदहाल बनाएगी।

सवाल: क्या सुपरमार्केट के बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा संचालन से महंगाई को थामा जा सकता है?

सरकार द्वारा रीटेल में एफडीआर्इ के समर्थन में किया गया सबसे बड़ा दुष्प्रचार यही है कि यह महंगार्इ को कम करेगा। विशाल रीटेल श्रृंखलाओं के आने से प्रतिस्पर्धा खत्म हो जाती है और बाजार में एकाधिकार स्थापित हो जाता है। बाजार में संकेंद्रण लंबी दौड़ में महंगार्इ को बढ़ाता है।

दुनिया भर में पिछले दो दशक के दौरान खासकर विशाल संगठित रीटेलरों का हिस्सा बढ़ा है। हालांकि इससे महंगार्इ कम नहीं हुर्इ है, बल्कि 2007 के बाद से वैश्विक खाद्यान्‍न कीमतों में तीव्र इजाफे का श्रेय खाद्य श्रृंखला और व्यापार पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के एकाधिकारी नियंत्रण को ही जाता है। 2011 के मध्य में एफएओ की वैश्विक खाद्यान्‍न कीमतें एक बार फिर रिकार्ड स्तर पर पहुंच गर्इ थीं, बावजूद इसके कि दुनिया भर में उस वक्त मंदी थी।

सबसे विशाल वैश्विक रीटेलरों की भूमिका साफ दिखाती है कि सुपरमार्केट महंगार्इ को थाम पाने में नाकाम हैं। वालमार्ट ने अपना कारोबारी नारा ''हमेशा कम कीमतें'' में हमेशा को 2007 में छोड़ दिया और उसकी जगह नारा लाया गया ''पैसा बचाओ, बेहतर जियो। वालमार्ट ने 2011 में अपने अमेरिकी प्रतिस्पर्धियों के मुकाबले सभी खाद्यान्‍न उत्पादों जैसे ब्रेड, दूध, कॉफी, पनीर इत्यादि के दाम बढ़ा दिए। कारफूर ने भी इस साल फ्रांस में दाम बढ़ाए हैं। टेस्को ने आयरलैंड में 2011 में ही 8000 उत्पादों के दाम बढ़ा दिए थे ताकि फरवरी में वित्त वर्ष के अंत से पहले वह मुनाफा कमा सके और इसके बाद बड़ी चालाकी से उसने मार्च में बिक्री बढ़ाने के लिए दामों में कटौती कर दी।

विशाल रीटेलर कम मार्जिन पर ज्यादा सामग्री बेचकर मुनाफा कमाते हैं। जब कभी उनकी बिक्री कम होती है, वे दाम बढ़ाने को मजबूर हो जाते हैं ताकि अपने मुनाफे को समान स्तर पर बनाए रख सकें। कारोबार चलाने के लिए मुनाफे का यह स्तर ही उनका पैमाना होता है, महंगार्इ थामने की कोर्इ कटिबद्धता इनके साथ नहीं होती। जब 2009 में मंदी आर्इ थी, उस साल 250 शीर्ष वैश्विक रीटेलरों की खुदरा बिक्री में सिर्फ 1.3 फीसदी का इजाफा हुआ था जबकि 90 रीटेलरों की बिक्री के आकार में गिरावट आर्इ थी। हालांकि 250 शीर्ष रीटेलरों का शुद्ध मुनाफा 2008 के 2.4 फीसदी के मुकाबले 2009 में फिर भी 3.1 फीसदी रहा था। लागत कटौती के उपायों के साथ कीमतें बढ़ाने के चलते ही यह संभव हो सका था।

सवाल: यदि बहुराष्ट्रीय कंपनियां दूसरे देशों में सुपरमार्केट चला सकती हैं तो भारत में क्यों नहीं?

विकसित देशों के अनुभव बताते हैं कि हाइपरमार्केट और सुपरमार्केट के आने से रीटेल बाजार में संकेंद्रण बड़े पैमाने पर पैदा हो जाता है। ऑस्ट्रेलिया में शीर्ष पांच रीटेलरों का बाजार हिस्सा 97 फीसदी पहुंच गया है जबकि इंगलैंड और अन्य यूरोपीय देशों में यह 50 फीसदी से ज्यादा पर बना हुआ है। विकासशील देशों के बीच भी दक्षिण अफ्रीका में शीर्ष पांच रीटेलरों की बाजार हिस्सेदारी 80 फीसदी से ज्यादा है, ब्राज़ील में 25 फीसदी से ज्यादा है और रूस में करीब 10 फीसदी है। ऐसे संकेंद्रण से छोटी खुदरा दुकानें खत्म हो गर्इं, आपूर्तिकर्ता बरबाद हो गए और उपभोक्ताओं के सामने विकल्पों की कमी हो गर्इ। दुनिया भर में हाल के दिनों में वैश्विक खुदरा श्रृंखलाओं की नकारात्मक भूमिका पर काफी बहस हुर्इ है।

दक्षिण पूर्वी एशिया में पिछले दशक के दौरान रीटेल का यह आधुनिक संस्करण काफी तेजी से बढ़ा है जिसके पीछे बहुराष्ट्रीय समेत घरेलू रीटेलरों का भी हाथ है। नील्सन कंपनी की रिपोर्ट ''रीटेल एंड शॉपर्स ट्रेंड: एशिया पैसिफिक, दी लेटेस्ट इन रीटेलिंग एंड शॉपर्स ट्रेंड्स फार दी एफएमसीजी इंडस्ट्री'', अगस्त 2010 के आंकड़े दिखाते हैं कि 2000 से 2009 के बीच जहां कहीं ऐसे आधुनिक स्टोरों का विस्तार हुआ है (जैसे कोरिया, सिंगापुर, ताइवान, चीन, मलयेशिया और हांगकांग), वहां पारंपरिक दुकानों की संख्या काफी कम हुर्इ है। जिन देशों में इनके विस्तार की गति धीमी रही है, वहां पारंपरिक दुकानों की संख्या बढ़ी है।

रीटेल में एफडीआर्इ के पैरोकार अकसर इस मामले में चीन को सफलता की दास्तान के रूप में बताते हैं। इस दौरान यह छुपा लिया जाता है कि चीन में सबसे बड़ी रीटेल श्रृंखला सरकार द्वारा चलार्इ जाती है जिसका नाम शंघार्इ बेलियन समूह है जिसके देश भर में 5500 से ज्यादा सुपरमार्केट हैं। अन्य छोटी सरकारी दुकानों का भी इसमें विलय हो चुका है। इस समूह की बाजार हिस्सेदारी वालमार्ट और कारफूर से ज्यादा रही है और चीन में शीर्ष पांच रीटेलरों की बाजार हिस्सेदारी भी 10 फीसदी से कम रही है। इसके बावजूद चीन अपने यहां पारंपरिक दुकानों को कम होने से रोक नहीं सका है।

मलयेशिया, इंडोनेशिया और थाइलैंड जैसे दक्षिण पूर्व एशियार्इ देशों में आधुनिक रीटेल स्टोरों पर कर्इ बंदिशें लागू हैं। एक नियम यह है कि हाइपरमार्केट शहरी बाजारों और पारंपरिक हाट से एक तय दूरी पर ही खोले जा सकते हैं। इनके न्यूनतम आकार और काम करने के घंटों पर भी नियम हैं। एक दशक पहले इन देशों में छोटे दुकानदारों द्वारा किए गए विरोध के बाद ये नियम कानून लागू किए गए। मलयेशिया ने 2002 में नए हाइपरमार्केट खोलने पर प्रतिबंध लगा दिया था, लेकिन इसे 2007 में उठा लिया गया। नियमन के बावजूद मलयेशिया, इंडोनेशिया और थाइलैंड में शीर्ष पांच रीटेलरों का बाजार हिस्सा 29, 24 और 36 फीसदी है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान थाइलैंड में टेस्को और इंडोनेशिया में कारफूर के आउटलेट खोले जाने के खिलाफ काफी विरोध प्रदर्शन हुए हैं।

इन मामलों से उलट भारत में अब भी आधुनिक रीटेलरों की बाजार हिस्सेदारी पांच फीसदी के आसपास है और कुल खुदरा बिक्री में शीर्ष पांच रीटेलरों का हिस्सा एक फीसदी से भी कम है। यह दिखाता है कि घरेलू कॉरपोरेट कंपनियों द्वारा आधुनिक रीटेल के विस्तार के बावजूद अब भी पारंपरिक दुकानदार उन्हें टक्कर देने की स्थिति में बना हुआ है। हालांकि आर्इसीआरआर्इर्इआर और अन्य अध्ययनों में यह बात सामने आर्इ है कि बड़े रीटेल आउटलेट के पड़ोस में स्थित छोटी खुदरा दुकानों की बिक्री में गिरावट आर्इ है। छोटे दुकानदारों की रक्षा करने और रीटेल बाजार में संकेंद्रण को रोकने के लिए जरूरी है कि एक प्रभावी नियमन का ढांचा लागू किया जाए। दुकान के आकार और उसकी जगह के संदर्भ में लाइसेंसिंग प्रणाली के माध्यम से विशाल रीटेल स्टोरों की संख्या पर रोक लगार्इ जानी होगी। खरीद के नियम भी तय किए जाने होंगे। अब तक सरकार ने ऐसे किसी नियमन के संदर्भ में कोर्इ परिचर्चा या रायशुमारी नहीं की है, न ही असंगठित, सहकारी और सरकारी क्षेत्र की मौजूदा रीटेल दुकानों के आधुनिकीकरण को बढ़ावा देने के लिए कोर्इ पहल की गर्इ है।

रीटेल में एफडीआर्इ को मंजूरी दिए जाने के बाद ऐसा कोर्इ भी नियमन असंभव हो चुका है क्‍योंकि उसके बाद बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने धनबल का इस्तेमाल कर के अपना विस्तार करेंगी और देश भर से भारी मुनाफा काटेंगी क्योंकि भारत आज दुनिया का सबसे तेजी से बढ़ता हुआ एफएमसीजी बाजार है। भारतीय कॉरपोरेट अपने कारोबारों को उन्हें बेचकर उनकी मदद ही करेंगे, खासकर वे कारोबार जो काफी कर्ज लेकर अपना भारी विस्तार कर चुके हैं। इस तरह संगठित रीटेल का हिस्सा तेजी से बढ़ेगा और बदले में बड़ी संख्या में छोटे दुकानदार विस्थापित हो जाएंगे, बड़े पैमाने पर बेरोजगारी बढ़ जाएगी। पहले से ही बेरोजगारी की खराब तस्वीर के बाद ऐसा होने से देश में सामाजिक तनाव और असंतुलन बढ़ेगा।

कुछ तबकों की ओर से दलील आ रही है कि भारतीय बाजार की वृद्धि दर पर्याप्त है कि वह बहुराष्ट्रीय सुपरमार्केटों और असंगठित खुदरा क्षेत्र को समानांतर समाहित कर सके। हालांकि इसके पीछे यह धारणा है कि पिछले दिनों में भारत की क्रय शक्ति में वृद्धि हुर्इ है और यह आगे भी जारी रहेगी, लेकिन यह गलत है। मंदी के संकेत अभी से ही मिलने लगे हैं। विकसित देशों में दोहरी मंदी और रिजर्व बैंक द्वारा ब्याज दरों में वृद्धि निवेश और वृद्धि पर प्रतिकूल असर डाल रही है। ऐसे परिदृश्य में बहुराष्ट्रीय रीटेलरों को भारतीय बाजार में प्रवेश की अनुमति देना वृद्धि और रोजगार सृजन तो दूर, विनाश को आमंत्रित करने जैसा है। www.junputh.com