मंगलवार, 26 मार्च 2013

होली : जीवन का अंग है रंग Holi : Colour Is A Part Of Life

शीतांशु कुमार सहाय

       हो-ली अर्थात् किसी के साथ हो लेने को ही होली की संज्ञा दी जाती है। चूंकि ईश्वर ने मनुष्य को बुद्धि के उपरान्त विवेक भी दिया है इसलिए विवेकानुसार अच्छाई के साथ ही होना मनुष्यता को प्रदर्शित करेगा। मनुष्यता प्रदर्शित करते हुए अच्छाई के साथ हो लीजिये और तब देखिये कि होली का कितना मजा आता है! मजा तो तब सजा में बदल जाता है जब बुराई के साथ हो लिया जाता है। यकीन मानिये कि होली में अधिकतर बुराई को ही आत्मसात् करने की एक परम्परा-सी चल पड़ी है। खूब नशा करो और जी भर कर हुल्लड़बाजी करो, अगर कोई प्रतिकार करे तो जबर्दस्ती करो और सामने वाला अगर शक्तिशाली निकला तो बुरा न मानो होली है का घिसा-पिटा जुमला सुना दो। यही सूत्र वाक्य हो गया है आजकल होली का। इसे कभी भी उचित नहीं ठहराया जा सकता। उपर्युक्त संदर्भ को यदि अपने ऊपर लागू करवाएं तो आपको शालीन होली का अभद्र स्वरूप दिखाई देगा। जो शालीन है उसे शालीन ही रहने दीजिये। प्यार को प्यार ही रहने दो, कोई और नाम न दो। शानदार परम्परा को बिगाड़ने का अनधिकृत अधिकार अपने हाथों में लेकर स्वयं को निन्दा का पात्र बनाना उचित तो नहीं। वास्तव में होली का सरोकार न नशे से है और न ही अभद्रता से। इसका सम्बन्ध तो अहंकारशून्य होकर सौहार्द फैलाने से है। यह सौहार्द केवल एक धर्म-विशेष से ही आबद्ध न होकर सम्पूर्ण समाज से जुड़ा है। 

       सौहार्द से पारस्परिक प्रेम का ऐसा प्रणयन होता है जो युगों-युगों तक घर-परिवार-समाज को स्नेह की शीतल छाया प्रदान करता रहता है। ऐसे वातावरण में अहंकारशून्य अर्थात् संस्कारित संतति उत्पन्न होती है। ऐसे संस्कारवानों से ही समतामूलक समाज की उत्पत्ति होती है। समानता पर आधारित समाज के निर्माण में जब प्रह्लाद को भारी समस्या का सामना करना पड़ा, घर-परिवार का भी सहयोग नहीं मिला, यहां तक कि पिता हिरण्यकश्यप भी जान के दुश्मन बन गए तब भगवान को आना ही पड़ा। सामाजिक सौहार्द के शत्रु का अवसान हुआ और फिर से अमन-चैन का राज कायम हुआ। यह पौराणिक घटना केवल धर्मारूढ़ नहीं; बल्कि सर्वधर्म समाज पर लागू होने वाला वैज्ञानिक सत्य है। इसे नकारा नहीं जा सकता। वैज्ञानिकता यह कि किसी भी प्राणी योनि में जन्म लेकर अमरता को आत्मसात् नहीं किया जा सकता। कोई-न-कोई एक कारण होगा ही जिसके कारण मौत को गले लगाना पड़ेगा। इसी कारण न धरती, न आकाश, न पाताल में; न दिन में, न रात में; न किसी अस्त्र-शस्त्र से और किसी मानव-दानव-देव के हाथों न मरने का वरदान पाकर हिरण्यकश्यप अपने को अमर समझने की भूल कर बैठा। इसलिए भगवान को नरसिंह का रूप धारण कर संधि काल में अपने घुटने पर रखकर भयानक नाखूनों से उसे मृत्यु दण्ड देना पड़ा। यहां जानने वाली वैज्ञानिकता यह है कि दूसरों को सताते समय अहंकारवश अपने को अमर समझने की भूल की जाती है। इसी भूल को जला डालना ही वास्तविक होलिका दहन है। 

       समस्त भूलों व दुष्प्रवृत्तियों को जलाने के पश्चात् रंगों से होली खेलने की बारी आती है। लाल, पीले, हरे, नीले- सभी रंग मिलकर एक हो जाते हैं। रंगों से सराबोर सबके चेहरे एक जैसे लगते हैं। किसी में कोई फर्क नहीं रह जाता है। सभी समान नजर आते हैं। होली अपनी समता यहीं प्रकट करती है। विभिन्न रंगों में छिपे चेहरों में कौन अरबपति और कौन खाकपति है, यह पता लगाना मुश्किल होता है। कौन खाते-खाते परेशान है और कौन खाए बिना- रंगों के बीच यह विभेद भी सम्भव नहीं। जीवन का अंग है रंग, इसे दुत्कारिये नहीं स्वाकारिये। वसन्त के इस रंगीले पर्व के माध्यम से अपने जीवन में भी नवविहान लाइये, रंगीन हो जाइये होली के साथ!
 

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