रविवार, 21 जुलाई 2013

गुरु पूर्णिमा : अन्तःकरण के अंधकार को दूर करते हैं गुरु Guru Poornima



गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवोमहेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरुवे नमः ।।
      गुरु अन्तःकरण के अंधकार को दूर करते हैं। आत्मज्ञान की युक्तियाँ बताते हैं। गुरु प्रत्येक शिष्य के अंतःकरण में निवास करते हैं। वे जगमगाती ज्योति के समान हैं जो शिष्य की बुझी हुई हृदय-ज्योति को प्रकट करते हैं। 
      'गु' का अर्थ है- अंधकार या मूल अज्ञान और 'रु' का अर्थ है- उस का निरोधक। गुरु अज्ञान-तिमिर का ज्ञानाञ्जन-शलाका से निवारण कर देते हैं। अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जानेवाले को 'गुरु' कहा जाता है। गुरु तथा देवता में समानता है। जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है, वैसी ही गुरु के लिए भी। गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है। आज विश्वस्तर पर जितनी भी समस्याएँ दिखायी दे रही हैं, उन का मूल कारण है गुरु-शिष्य परम्परा का टूटना।
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः॥
(शीमद्भगवद्गीता ४ / ३४)
      गुरु की महत्ता को समझाते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया-- ज्ञान को तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ। उन को भली-भाँति दण्डवत्-प्रणाम करने से, उन की सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म-तत्त्व को भली-भाँति जाननेवाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे। 
      गुरु पूर्णिमा का यह दिन 'महाभारत' के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिन भी है। उन के पिता महर्षि पराशर तथा माता सत्यवती हैं। कृष्ण द्वैपायन व्यास संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थे और उन्होंने भगवान द्वारा प्रदत्त ज्ञान को पहली बार संकलित कर पुस्तक का स्वरूप प्रदान किया। इस ज्ञान को 'वेद' की पवित्र संज्ञा दी गयी। चारों वेदों की भी रचना करने के कारण उन का एक नाम 'वेद व्यास' भी है। उन्हें आदिगुरु कहा जाता है और उन के सम्मान में गुरु पूर्णिमा को 'व्यास पूर्णिमा' नाम से भी जाना जाता है। ‘व्यास’ का शाब्दिक अर्थ है सम्पादक। वेदों का व्यास यानी विभाजन भी सम्पादन की श्रेणी में आता है। कथावाचक शब्द भी व्यास का पर्याय है। कथावाचन भी देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप पौराणिक कथाओं का विश्लेषण भी सम्पादन है। भगवान वेदव्यास ने वेदों का संकलन किया, १०८ उपनिषदों, १८ पुराणों और उपपुराणों आदि ग्रन्थों की रचना की। ऋषियों के बिखरे अनुभवों को जनसामान्य के योग्य  बनाकर व्यवस्थित किया। उन्होंने ‘महाभारत’ की रचना इसी पूर्णिमा के दिन पूर्ण की और विश्व के सुप्रसिद्ध आर्ष ग्रंथ 'ब्रह्मसूत्र' का लेखन इसी दिन आरंभ किया। देवताओं ने वेदव्यासजी का पूजन आषाढ़ पूर्णिमा को किया और तभी से 'व्यास पूर्णिमा' अर्थात् 'गुरु पूर्णिमा' मनायी जा रही है।
      द्वापर युग के अंतिम भाग में वेदव्यासजी प्रकट हुए थे। उन्होंने अपनी सर्वज्ञ दृष्टि से समझ लिया कि कलियुग में मनुष्यों की शारीरिक शक्ति और बुद्धि शक्ति बहुत घट जाएगी। इसलिए कलियुग के मनुष्यों को सभी वेदों का अध्ययन करना और उनको समझ लेना संभव नहीं रहेगा। व्यासजी ने यह जानकर वेदों के चार विभाग कर दिए। जो लोग वेदों को पढ़, समझ नहीं सकते, उनके लिए महाभारत की रचना की। महाभारत में वेदों का सभी ज्ञान आ गया है। धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र, उपासना और ज्ञान-विज्ञान की सभी बातें महाभारत में बड़े सरल ढंग से समझाई गई हैं। इसके अतिरिक्त पुराणों की अधिकांश कथाओं द्वारा हमारे देश, समाज तथा धर्म का पूरा इतिहास महाभारत में आया है। महाभारत की कथाएं बड़ी रोचक और उपदेशप्रद हैं। धार्मिक ग्रंथों में महर्षि वेदव्यास द्वारा लिखित 'शिव-पुराण' को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। इस ग्रंथ में भगवान शिव की भक्ति महिमा का उल्लेख है। इसमें शिव के अवतार आदि विस्तार से लिखे गए हैं। 'वेद' और 'उपनिषद' सहित 'विज्ञान भैरव तंत्र', 'शिव पुराण' और 'शिव संहिता' में शिव की संपूर्ण शिक्षा और दीक्षा समाई हुई है। तंत्र के अनेक ग्रंथों में उनकी शिक्षा का विस्तार हुआ है। सब प्रकार की रुचि रखने वाले लोग भगवान की उपासना में लगें और इस प्रकार सभी मनुष्यों का कल्याण हो। इसी भाव से व्यासजी ने अठारह पुराणों की रचना की। इन पुराणों में भगवान के सुंदर चरित्र व्यक्त किए गए हैं। भगवान के भक्त, धर्मात्मा लोगों की कथाएं पुराणों में सम्मिलित हैं। इसके साथ-साथ व्रत-उपवास को की विधि, तीर्थों का माहात्म्य आदि लाभदायक उपदेशों से पुराण परिपूर्ण है।
      भारत में गुरु पूर्णिमा पर्व बड़ी श्रद्धा व धूमधाम से मनाया जाता है। आषाढ़ की पूर्णिमा को ही 'गुरु पूर्णिमा' कहते हैं। इस दिन गुरु पूजा का विधान है। वैसे तो देश भर में एक से बड़े एक अनेक विद्वान हुए हैं, परंतु उनमें महर्षि वेद व्यास, जो चारों वेदों के प्रथम व्याख्याता थे, उनका पूजन आज के दिन किया जाता है।
      इस दिन से लगभग चार महीने तक परिव्राजक साधु-संत एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं। जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, ऐसे ही गुरुचरण में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शांति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है।
      प्राचीन काल में जब विद्यार्थी गुरु के आश्रम में निःशुल्क शिक्षा ग्रहण करता था, तो इसी दिन श्रद्धा भाव से प्रेरित होकर अपने गुरु का पूजन करके उन्हें अपनी शक्ति, अपने सामर्थ्यानुसार दक्षिणा देकर कृतकृत्य होता था।      
      हमें वेदों का ज्ञान देनेवाले व्यासजी ही हैं, अतः वे हमारे आदिगुरु हुए। इसीलिए इस दिन को व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है। उनकी स्मृति हमारे मन मंदिर में हमेशा ताजा बनाए रखने के लिए हमें इस दिन अपने गुरुओं को व्यासजी का अंश मानकर उनकी पाद-पूजा करनी चाहिए तथा अपने उज्ज्वल भविष्य के लिए गुरु का आशीर्वाद जरूर ग्रहण करना चाहिए। साथ ही केवल अपने गुरु-शिक्षक का ही नहीं, अपितु माता-पिता, बड़े भाई-बहन आदि की भी पूजा का विधान है।
      गुरु पूर्णिमा के दिन खासकर करें : -
* प्रातः घर की सफाई, स्नानादि नित्य कर्म से निवृत्त होकर साफ-सुथरे वस्त्र धारण करके तैयार हो जाएं।
* घर के किसी पवित्र स्थान पर पटिए पर सफेद वस्त्र बिछाकर उस पर १२-१२ रेखाएँ बनाकर व्यास-पीठ बनाना चाहिए।
* फिर हमें 'गुरुपरम्परासिद्धयर्थं व्यासपूजां करिष्ये' मंत्र से पूजा का संकल्प लेना चाहिए।
* तत्पश्चात् दसों दिशाओं में अक्षत छोड़ना चाहिए।
* फिर व्यासजी, ब्रह्माजी, शुकदेवजी, गोविंद स्वामीजी और शंकराचार्यजी के नाम, मंत्र से पूजा का आवाहन करना चाहिए।
* अब अपने गुरु अथवा उन के चित्र की पूजा करके उन्हें यथायोग्य दक्षिणा देना चाहिए।
* गुरु पूर्णिमा पर व्यासजी द्वारा रचे हुए ग्रंथों का अध्ययन-मनन करके उनके उपदेशों पर आचरण करना चाहिए।
* यह पर्व श्रद्धा से मनाना चाहिए, अंधविश्वास के आधार पर नहीं।
* इस दिन वस्त्र, फल, फूल व माला अर्पण कर गुरु को प्रसन्न कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए।
* गुरु का आशीर्वाद सभी-छोटे-बड़े तथा हर विद्यार्थी के लिए कल्याणकारी तथा ज्ञानवर्द्धक होता है।
* इस दिन केवल गुरु (शिक्षक) ही नहीं, अपितु माता-पिता, बड़े भाई-बहन आदि की भी पूजा का विधान है।
      अन्त में कबीर की वाणी का उल्लेख करता हूँ......
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान॥
      गुरु के श्रीचरणों में नमन!

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