मंगलवार, 3 सितंबर 2013

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक 2013 : भूख से लड़ाई की कवायद


शीतांशु कुमार सहाय
    भूख से लड़ाई का कथित अन्त सन्निकट है। इसे लाचारी, हड़बड़ी या 2014 के लोकसभा निर्वाचन के मद्देनजर जनमत को पक्ष में करने की कवायद कहें अथवा साढ़े चार वर्ष बाद वादा निभाने की बेचारगी! कुछ भी कह लीजिये पर सच तो यही है कि विपक्षियों के सभी संशोधनों को अस्वीकार करते हुए संसद के दोनों सदनों से राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक 2013 को ध्वनिमत से पारित करवा लिया गया। यों राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा 5 जुलाई को हस्ताक्षरित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अध्यादेश 2013 ने कानून का औपचारिक अमलीजामा पहन लिया। अध्यादेश को 6 माह के अन्दर लोकसभा व राज्यसभा की मंजूरी अनिवार्य थी। यह अनिवार्यता पूरी हो गयी। लोकसभा से 26 अगस्त को पारित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक 2013 को राज्यसभा ने 2 सितम्बर को ध्वनिमत से पारित कर दिया। इस विधेयक को संसद की मंजूरी मिलने पर काँग्रेस सहित पूरा संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन (संप्रग) गद्गद् है। सर्वाधिक खुश हैं केन्द्रीय खाद्य मंत्री प्रोफेसर केवी थॉमस कि उनके विभाग से सम्बद्ध इस विधेयक में विपक्षियों के एक भी संशोधन को शामिल नहीं किया गया। अब दुनिया के उन चुनिन्दा देशों में भारत शामिल हो गया जो अपनी अधिकांश आबादी को खाद्यान्न की गारंटी देते हैं। 11,30,000 करोड़ रुपये के सरकारी समर्थन से खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम दुनिया का सबसे बड़ा कार्यक्रम होगा। इसके लिए 6.2 करोड़ टन खाद्यान्न की आवश्यकता है। यह विधेयक प्रति व्यक्ति प्रति माह 5 किलो चावल, गेहूँ और मोटा अनाज क्रमशः 3, 2 और 1 रुपये प्रति किलोग्राम के तयशुदा मूल्य पर गारंटी करेगा। इससे देश की 82 करोड़ आबादी को लाभ होने की बात कही जा रही है।
    वास्तव में खाद्य सुरक्षा की अवधारणा व्यक्ति के मूलभूत अधिकार को परिभाषित करती है। अपने जीवन के लिए हर किसी को निर्धारित पोषक तत्त्वों से परिपूर्ण भोजन की जरूरत होती है। महत्त्वपूर्ण यह भी है कि भोजन की जरूरत नियत समय पर पूरी हो। इसका एक पक्ष यह भी है कि आने वाले समय की अनिश्चितता को देखते हुए हमारे भण्डारों में पर्याप्त मात्रा में अनाज सुरक्षित हों जिसे जरूरत पड़ने पर तत्काल जरूरतमंद लोगों तक सुव्यवस्थित तरीके से पहँुचाया जाये। हाल के अनुभवों ने सिखाया है कि राज्य के अनाज गोदाम इसलिये भरे हुए नहीं होने चाहिये कि लोग उसे खरीद पाने में सक्षम न हों। इसका अर्थ है कि सामाजिक सुरक्षा के नजरिये से अनाज आपूर्ति की सुनियोजित व्यवस्था होनी चाहिये। यदि समाज की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित रहेगी तो लोग अन्य रचनात्मक प्रक्रियाओं में अपनी भूमिका निभा पाएंगे। इस परिप्रेक्ष्य में सरकार का दायित्व है कि बेहतर उत्पादन का वातावरण बनाये और खाद्यान्न के बाजार मूल्यों को समुदाय के हितों के अनुरूप बनाये रखे। खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) ने 1965 में अपने संविधान की प्रस्तावना में घोषणा की कि मानवीय समाज की भूख से मुक्ति सुनिश्चित करना उनके बुनियादी उद्देश्यों में से एक है। सम्भवतः इसी के दृष्टिगत खाद्य सुरक्षा कानून का निर्माण हुआ है। इसमें संसदीय स्थाई समिति की रिपोर्ट के अनुसार संशोधन हुए हैं जिसने लाभार्थियों को 2 वर्गों में विभाजित किये जाने के प्रस्ताव को समाप्त करने की सलाह दी। साथ ही एकसमान मूल्य पर हर माह प्रति व्यक्ति 5 किलोग्राम अनाज दिये जाने की वकालत हुई। शुरू में इस योजना को देश के 150 पिछड़े जिलों में चलाया जाएगा और बाद में इसे पूरे देश में लागू किया जाना है। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा परिभाषित गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या भारत में 41 करोड़ है जिनकी एक दिन की आमदनी 1.25 डॉलर से कम है। वास्तव में यह विधेयक लाना केन्द्र सरकार की लाचारी थी; क्योंकि 2009 में ही राष्ट्रपति ने अभिभाषण में कहा था कि सबको अनाज की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सरकार कानून बनाएगी। सत्ता में आने के साढ़े चार वर्ष बाद सरकार जो विधेयक पारित करायी है उसमें कई त्रुटियाँ शेष हैं। इसे ऐसे समय में लाया गया है जब उसके सत्ता से जाने का समय आ गया है।
    दरअसल, भूख से जंग लड़ने वाले विधेयक की त्रुटियों की ओर सरकार का ध्यान आकृष्ट कराया तो गया मगर उस पर ध्यान न दिया गया। विधेयक में 6 माह से 3 वर्ष के बच्चे को भी शामिल किया गया है लेकिन इस बात का उल्लेख नहीं है कि बच्चे को क्या राशन देंगे। क्या उन्हें भी गेहूँ और चावल दिया जायेगा या बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ उनके लिए भोजन तैयार करेंगी? भारत सरकार के कृषि मंत्रालय के 2009 की रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्रामीण क्षेत्र में सबसे गरीब व्यक्ति के अनाज की प्रतिव्यक्ति प्रति माह खपत 9.8 किलोग्राम है जबकि खाद्य सुरक्षा विधेयक में 5 किलोग्राम अनाज देने की बात ही कही गयी है जो प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 166 ग्राम ठहरता है। सरकार तैयार भोजन देने और स्नैक्स आदि घर तक पहुँचाने की बात करती है। गाँव में तो ऐसा भोजन तैयार नहीं होता है। क्या इसे बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ तैयार करेंगी? विधेयक में प्रति व्यक्ति के स्थान पर परिवार को आधार बनाया गया है तब क्या एक व्यक्ति का परिवार होगा या नहीं? यों बच्चों व बड़ों का राशन एक समान कर दिया गया है जो व्यावहारिक नहीं है। एक अव्यावहारिकता की ओर भाजपा के अरुण जेटली ध्यान दिलाते हैं कि पीडीएस, आईसीडीएस और मध्याह्न भोजन जैसी विभिन्न खाद्य योजनाओं में सब्सिडी 24,844 करोड़ रुपये है जबकि इस विधेयक में 25,000 करोड़ रुपये की सब्सिडी की बात की गयी है। यों कुछ राज्य सरकारों ने भी आशंका जतायी है। इस कानून के बाद छत्तीसगढ़ जैसे राज्य क्या करेंगे जहां इससे बेहतर योजनाएँ पहले से ही लागू हैं। कुल मिलाकर यही कहना पड़ेगा कि मनरेगा की तरह इसका भी हश्र होगा।

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