सोमवार, 8 फ़रवरी 2016

निदा फ़ाज़ली : साम्प्रदायिक सौहार्द के प्रतिमूर्ति की अविस्मरणीय रचनाएँ My Tribute to Nida Fazli





जन्म : 12 अक्तूबर 1938 (दिल्ली)
निधन : 8 फ़रवरी 2016 (मुंबई) 
 


-शीतांशु कुमार सहाय
     बचपन से जिन के नज़्मों, गीतों और ग़ज़लों को सुनकर मैंने कुछ तुकबन्दी लिखना सीखा, उस महान साहित्यकार निदा फ़ाज़ली के निधन को वास्तव में मैं व्यक्तिगत क्षति मानता हूँ। 
     वे हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रबल व व्यावहारिक समर्थक थे। साम्प्रदायिक सौहार्द की बातें उन की रचनाओं में मुखरित होती रही हैं। वर्तमान में उन की रचनाओं से हमें सीख लेने की जरूरत है। 
     मशहूर शायर निदा फ़ाज़ली का सोमवार ८ फ़रवरी २०१६ को दिल का दौरा पड़ने से मुंबई में निधन हो गया। वह ७७ साल के थे। शायरी की दुनिया में निदा जाना-पहचाना नाम थे। उन्‍होंने शायरी और ग़ज़ल के अलावा कई फिल्‍मों के लिए गाने भी लिखे। मुक़्तदा हसन निदा फ़ाज़ली- एक ऐसा शायर, जो जीता रहा, वही लिखता रहा। अपने वक़्त की तमाम दरो-दीवारों को चंद शब्‍दों से हटाता रहा, तोड़ता रहा और इंसानियत की ऐसी दुनिया रचने की कोशिश में लगा रहा, जो मस्‍जिदों से बाहर थी, मंदिरों से दूर थी और गिरिजाघरों की दीवारों से अलग थी। शायर जो बच्‍चे की मुस्‍कान में खुदा ढूँढता रहा,  किसी रोते हुए को हँसाने की कोशिश में लगा रहा,  दिलों को मिलाने और जोड़ने की कोशिश में लगा रहा, ज़िंदगी को किताबों से बाहर तलाशता रहा, ऐसे शायर का ऐसे बिना कुछ कहे, अचानक चले जाना सालता है और उन तमाम लोग को सन्‍न कर जाता है, जो आप में होते हुए इस दुनिया के साथ आप की तरह ही चलते रहे। 
     मुक़्तदा हसन निदा फ़ाज़ली या मात्र निदा फ़ाज़ली हिन्दी और उर्दू के मशहूर शायर थे। वह छोटी उम्र से ही लिखने लगे थे। निदा फ़ाज़ली इन का लेखन का नाम है। निदा का अर्थ है स्वर। फ़ाज़िला क़श्मीर के एक इलाके का नाम है जहाँ से निदा के पुरखे आकर दिल्ली में बस गए थे, इसलिए उन्होंने अपने उपनाम में 'फ़ाज़ली' जोड़ा। जब वह पढ़ते थे तो उन के सामने की पंक्ति में एक लड़की बैठा करती थी जिस से वह एक अनजाना, अनबोला-सा रिश्ता अनुभव करने लगे थे। एक दिन कॉलेज के बोर्ड पर एक नोटिस दिखा "Miss Tondon met with an accident and has expired" (कुमारी टंडन का एक्सीडेण्ट हुआ और उन का देहान्त हो गया है)। निदा बहुत दु:खी हुए और उन्होंने पाया कि उन का अभी तक का लिखा कुछ भी उन के इस दुःख को व्यक्त नहीं कर पा रहा है, न ही उन को लिखने का जो तरीका आता था उस में वह कुछ ऐसा लिख पा रहे थे जिस से उन के अंदर के दुःख की गिरहें खुलें। 
     एक दिन सुबह वह एक मंदिर के पास से गुजरे जहाँ पर उन्होंने किसी को सूरदास का भजन "मधुबन तुम क्यों रहत हरे? बिरह बियोग स्याम सुंदर के ठाढ़े क्यों न जरे...।" गाते सुना, जिस में कृष्ण के मथुरा से द्वारका चले जाने पर उन के वियोग में डूबी राधा और गोपियाँ फुलवारी से पूछ रही होती हैं- "ऐ फुलवारी, तुम हरी क्यों बनी हुई हो? कृष्ण के वियोग में तुम खड़े क्यों नहीं जल गईं? वह सुन कर निदा को लगा कि उन के अंदर दबे हुए दुःख की गिरहें खुल रही हैं। फिर उन्होंने कबीरदास, तुलसीदास, बाबा फ़रीद इत्यादि कई अन्य कवियों को भी पढ़ा और उन्होंने पाया कि इन कवियों की सीधी-सादी, बिना लाग लपेट की, दो-टूक भाषा में लिखी रचनाएँ अधिक प्रभावकारी हैं। जैसे- सूरदास की ही "उधो, मन न भए दस बीस। एक हुतो सो गयो स्याम संग, को अराधै ते ईस॥" इसी तरह मिर्ज़ा ग़ालिब की एब्सट्रैक्ट भाषा में "दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है?"। तब से वैसी ही सरल भाषा सदैव के लिए उन की अपनी शैली बन गयी। 
     हिन्दू-मुस्लिम क़ौमी दंगों से तंग आकर उन के माता-पिता पाकिस्तान जाकर बस गए लेकिन निदा यहीं भारत में रहे। कमाई की तलाश में कई शहरों में भटके। उस समय बम्बई (मुंबई) हिन्दी/ उर्दू साहित्य का केन्द्र था और वहाँ से धर्मयुग, सारिका जैसी लोकप्रिय और सम्मानित पत्रिकाएँ छपती थीं तो १९६४ में निदा काम की तलाश में वहाँ चले गए और धर्मयुग, ब्लिट्ज़ जैसी पत्रिकाओं, समाचार पत्रों के लिए लिखने लगे। उन की सरल और प्रभावकारी लेखन-शैली ने शीघ्र ही उन्हें सम्मान और लोकप्रियता दिलायी। उर्दू कविता का उन का पहला संग्रह १९६९ में छपा। यहाँ मैं हिन्दी व उर्दू के प्रतिष्ठित कलमकार निदा फाजली की कुछ रचनाएँ पेश कर रहा हूँ। इन में जो सब से पहली रचना है, वह मुझे सब से प्रिय है। १९८१ में रिलीज हुई फिल्म 'आहिस्ता-आहिस्ता' का यह गाना जब भी बजता, संगीत से प्यार करनेवाले हर शख्स गीतकार निदा फाजली को याद करते हैं-

कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता,
कहीं ज़मीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता। 

बुझा सका है भला कौन वक़्त के शोले,
ये ऐसी आग है जिस में धुआँ नहीं मिलता।

तमाम शहर में ऐसा नहीं कि ख़ुलूस न हो,
जहाँ उम्मीद हो सकी वहाँ नहीं मिलता।

कहाँ चिराग़ जलायें, कहाँ गुलाब रखें,
छतें तो मिलती हैं लेकिन मकां नहीं मिलता।

ये क्या अज़ाब है सब अपने आप में गुम हैं,
ज़ुबां मिली है मगर हमज़ुबां नहीं मिलता।

चिराग़ जलते ही बीनाई बुझने लगती है,
खुद अपने घर में ही घर का निशां नहीं मिलता।

जिसे भी देखिये वो अपने आप में गुम है,
ज़ुबां मिली है मगर हमज़ुबां नहीं मिलता।

तेरे जहान में ऐसा नहीं कि प्यार न हो,
जहाँ उम्मीद हो इस की वहाँ नहीं मिलता।

(गायक : भूपेंद्र, संगीतकार : खय्याम, चित्रपट : आहिस्ता-आहिस्ता (१९८१))

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मस्जिदों-मन्दिरों की दुनिया में
मुझको पहचानते कहाँ हैं लोग

रोज़ मैं चाँद बन के आता हूँ
दिन में सूरज-सा जगमगाता हूँ

खनखनाता हूँ माँ के गहनों में
हँसता रहता हूँ छुप के बहनों में

मैं ही मज़दूर के पसीने में
मैं ही बरसात के महीने में

मेरी तस्वीर आँख का आँसू
मेरी तहरीर जिस्म का जादू

मस्जिदों-मन्दिरों की दुनिया में
मुझको पहचानते नहीं जब लोग

मैं ज़मीनों को बे-ज़िया करके
आसमानों में लौट जाता हूँ

मैं ख़ुदा बन के क़हर ढाता हूँ

शब्दार्थ :- तहरीर= लिखावट,  ज़िया= प्रकाश

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बृन्दाबन के कृष्ण-कन्हैय्या अल्लाह हू
बँसी राधा गीता गैय्या अल्लाह हू

थोड़े तिनके थोड़े दाने थोड़ा जल
एक ही जैसी हर गौरय्या अल्लाह हू

जैसा जिस का बर्तन वैसा उस का तन
घटती बढ़ती गंगा मैय्या अल्लाह हू

एक ही दरिया नीला पीला लाल हरा
अपनी अपनी सब की नैय्या अल्लाह हू

मौलवियों का सजदा पंडित की पूजा
मज़दूरों की हैय्या हैय्या अल्लाह हू

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नज़दीकियों में दूर का मंज़र तलाश कर
जो हाथ में नहीं है वो पत्थर तलाश कर।

सूरज के इर्द-गिर्द भटकने से फ़ायदा
दरिया हुआ है गुम तो समुंदर तलाश कर।

तारीख़ में महल भी है हाकिम भी तख़्त भी
गुम-नाम जो हुए हैं वो लश्कर तलाश कर।

रहता नहीं है कुछ भी यहाँ एक सा सदा
दरवाज़ा घर का खोल के फिर घर तलाश कर।

कोशिश भी कर उमीद भी रख रास्ता भी चुन
फिर उस के बाद थोड़ा मुक़द्दर तलाश कर।

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उठ के कपड़े बदल
घर से बाहर निकल
जो हुआ सो हुआ॥

जब तलक साँस है
भूख है प्यास है
ये ही इतिहास है
रख के कांधे पे हल
खेत की ओर चल
जो हुआ सो हुआ॥

खून से तर-ब-तर
कर के हर राहगुज़र
थक चुके जानवर
लकड़ियों की तरह
फिर से चूल्हे में जल
जो हुआ सो हुआ॥

जो मरा क्यों मरा
जो जला क्यों जला
जो लुटा क्यों लुटा
मुद्दतों से हैं गुम
इन सवालों के हल
जो हुआ सो हुआ॥

मंदिरों में भजन
मस्ज़िदों में अज़ाँ
आदमी है कहाँ
आदमी के लिए
एक ताज़ा ग़ज़ल
जो हुआ सो हुआ।।

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ये दिल कुटिया है संतों की यहाँ राजा भिकारी क्या
वो हर दीदार में ज़रदार है गोटा किनारी क्या

ये काटे से नहीं कटते ये बांटे से नहीं बंटते
नदी के पानियों के सामने आरी कटारी क्या

उसी के चलने-फिरने, हंसने-रोने की हैं तस्वीरें
घटा क्या, चाँद क्या, संगीत क्या, बाद-ए-बहारी क्या

किसी घर के किसी बुझते हुए चूल्हे में ढूँढ उसको
जो चोटी और दाढ़ी में रहे वो दीनदारी क्या

हमारा मीर जी से मुत्तफ़िक़ होना है नामुमकिन
उठाना है जो पत्थर इश्क़ का तो हल्का-भारी क्या

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बेसन की सोंधी रोटी पर
खट्टी चटनी जैसी माँ

याद आती है चौका-बासन
चिमटा फुकनी जैसी माँ

बाँस की खुर्री खाट के ऊपर
हर आहट पर कान धरे

आधी सोई आधी जागी
थकी दोपहरी जैसी माँ

चिड़ियों के चहकार में गूंजे
राधा-मोहन अली-अली

मुर्ग़े की आवाज़ से खुलती
घर की कुंडी जैसी माँ

बिवी, बेटी, बहन, पड़ोसन
थोड़ी थोड़ी सी सब में

दिन भर इक रस्सी के ऊपर
चलती नटनी जैसी माँ

बाँट के अपना चेहरा, माथा,
आँखें जाने कहाँ गई

फटे पुराने इक अलबम में
चंचल लड़की जैसी माँ

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होश वालों को ख़बर क्या बेख़ुदी क्या चीज़ है
इश्क़ कीजे फिर समझिए ज़िन्दगी क्या चीज़ है

उन से नज़रें क्या मिली रोशन फिजाएँ हो गईं
आज जाना प्यार की जादूगरी क्या चीज़ है

ख़ुलती ज़ुल्फ़ों ने सिखाई मौसमों को शायरी
झुकती आँखों ने बताया मयकशी क्या चीज़ है

हम लबों से कह न पाये उन से हाल-ए-दिल कभी
और वो समझे नहीं ये ख़ामोशी क्या चीज़ है

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सब की पूजा एक सी, अलग-अलग हर रीत
मस्जिद जाये मौलवी, कोयल गाये गीत

पूजा घर में मूर्ती, मीरा के संग श्याम
जितनी जिसकी चाकरी, उतने उसके दाम

सीता, रावण, राम का, करें विभाजन लोग
एक ही तन में देखिये, तीनों का संजोग

मिट्टी से माटी मिले, खो के सभी निशां
किस में कितना कौन है, कैसे हो पहचान

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तुम्हारी कब्र पर मैं
फ़ातेहा पढ़ने नही आया,

मुझे मालूम था, तुम मर नही सकते
तुम्हारी मौत की सच्ची खबर
जिसने उड़ाई थी, वो झूठा था,
वो तुम कब थे?
कोई सूखा हुआ पत्ता, हवा मे गिर के टूटा था।

मेरी आँखे
तुम्हारी मंज़रो मे कैद है अब तक
मैं जो भी देखता हूँ, सोचता हूँ
वो, वही है
जो तुम्हारी नेक-नामी और बद-नामी की दुनिया थी।

कहीं कुछ भी नहीं बदला,
तुम्हारे हाथ मेरी उंगलियों में सांस लेते हैं,
मैं लिखने के लिये जब भी कागज कलम उठाता हूं,
तुम्हे बैठा हुआ मैं अपनी कुर्सी में पाता हूं।

बदन में मेरे जितना भी लहू है,
वो तुम्हारी लगजिशों नाकामियों के साथ बहता है,
मेरी आवाज में छुपकर तुम्हारा जेहन रहता है,
मेरी बीमारियों में तुम, मेरी लाचारियों में तुम।

तुम्हारी कब्र पर जिसने तुम्हारा नाम लिखा है,
वो झूठा है, वो झूठा है, वो झूठा है,
तुम्हारी कब्र में मैं दफन, तुम मुझमें जिन्दा हो,
कभी फुरसत मिले तो फातहा पढनें चले आना |

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कहीं छत थी दीवार-ओ-दर थे कहीं
मिला मुझको घर का पता देर से
दिया तो बहुत ज़िन्दगी ने मुझे
मगर जो दिया वो दिया देर से

हुआ न कोई काम मामूल से
गुज़ारे शब-ओ-रोज़ कुछ इस तरह
कभी चाँद चमका ग़लत वक़्त पर
कभी घर में सूरज उगा देर से

कभी रुक गये राह में बेसबब
कभी वक़्त से पहले घिर आई शब
हुये बंद दरवाज़े खुल खुल के सब
जहाँ भी गया मैं गया देर से

ये सब इत्तिफ़ाक़ात का खेल है
यही है जुदाई यही मेल है
मैं मुड़ मुड़ के देखा किया दूर तक
बनी वो ख़ामोशी सदा देर से

सजा दिन भी रौशन हुई रात भी
भरे जाम लहराई बरसात भी
रहे साथ कुछ ऐसे हालात भी
जो होना था जल्दी हुआ देर से

भटकती रही यूँ ही हर बंदगी
मिली न कहीं से कोई रौशनी
छुपा था कहीं भीड़ में आदमी
हुआ मुझ में रौशन ख़ुदा देर से

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हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा
मैं ही कश्ती हूँ मुझी में है समंदर मेरा

किससे पूछूँ कि कहाँ गुम हूँ बरसों से
हर जगह ढूँढता फिरता है मुझे घर मेरा

एक से हो गए मौसमों के चेहरे सारे
मेरी आँखों से कहीं खो गया मंज़र मेरा

मुद्दतें बीत गईं ख़्वाब सुहाना देखे
जागता रहता है हर नींद में बिस्तर मेरा

आईना देखके निकला था मैं घर से बाहर
आज तक हाथ में महफ़ूज़ है पत्थर मेरा

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अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं
रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं

पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है
अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं

वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों तक
किसको मालूम कहाँ के हैं किधर के हम हैं

चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब
सोचते रहते हैं कि किस राहगुज़र के हम हैं

गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम
हर क़लमकार की बेनाम ख़बर के हम हैं

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बदला न अपने आप को जो थे वही रहे
मिलते रहे सभी से मगर अजनबी रहे

दुनिया न जीत पाओ तो हारो न ख़ुद को तुम
थोड़ी बहुत तो ज़हन में नाराज़गी रहे

अपनी तरह सभी को किसी की तलाश थी
हम जिसके भी क़रीब रहे दूर ही रहे

गुज़रो जो बाग़ से तो दुआ माँगते चलो
जिसमें खिले हैं फूल वो डाली हरी रहे

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कुछ तबीयत ही मिली थी ऐसी चैन से जीने की सूरत ना हुई
जिसको चाहा उसे अपना ना सके जो मिला उससे मुहब्बत ना हुई

जिससे जब तक मिले दिल ही से मिले दिल जो बदला तो फसाना बदला
रस्में दुनिया की निभाने के लिए हमसे रिश्तों की तिज़ारत ना हुई

दूर से था वो कई चेहरों में पास से कोई भी वैसा ना लगा
बेवफ़ाई भी उसी का था चलन फिर किसीसे भी शिकायत ना हुई

वक्त रूठा रहा बच्चे की तरह राह में कोई खिलौना ना मिला
दोस्ती भी तो निभाई ना गई दुश्मनी में भी अदावत ना हुई


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